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________________ ३७४ जैनदर्शन सुनकर प्रथम ही संस्कृत-साधु शब्दोंका स्मरण आता है और फिर उनसे अर्थबोध होता है। इस तरह शब्दराशिके एक बड़े भागको वाचकशक्तिसे शून्य कहनेवाले इस मतमे एक विचित्र साम्प्रदायिक भावना कार्य कर रही है । ये संस्कृत शब्दोंको साधु कहकर' और इनमें ही वाचकशक्ति मानकर ही चुप नहीं हो जाते, किन्तु साधुशब्दके उच्चारणको धर्म और पुण्य मानते है और उसे ही कर्तव्य-विधिमे शामिल करते है तथा असाधु अपभ्रंश-शब्दोंके उच्चारणको शक्तिशून्य ही नहीं, पापका कारण भी कहते है। इसका मूल कारण है संस्कृतमे रचे गये वेदको धर्म्य और प्रमाण मानना तथा प्राकृत, पाली आदि भाषाओंमें रचे गये जैन, बौद्ध आदि आगमोंको अधर्म्य और अप्रमाण घोषित करना । स्त्री और शद्रोंको धर्मके अधिकारोंसे वंचित करनेके अभिप्रायसे उनके लिये संस्कृत-शब्दोंका उच्चारण हो निषिद्ध कर दिया गया । नाटकोंमे स्त्री और शूद्र पात्रोंके मुखसे प्राकृतका हो उच्चारण कराया गया है। 'ब्राह्मण को साधु शब्द बोलना चाहिये, अपभ्रंश या म्लेच्छ शब्दोंका व्यवहार नहीं करना चाहिए' आदि विधिवाक्योंकी सृष्टिका एक ही अभिप्राय है कि धर्ममे वेद और वेदोपजीवी वर्गका अबाध अधिकार कायम रहे । अधिकार हथयानेकी इस भावनाने वस्तुके स्वरूपमें ही विपर्यास उत्पन्न कर देनेका चक्र चलाया और एकमात्र संकेतके बलपर अर्थबोध करनेवाले शब्दोंमें भी जातिभेद उत्पन्न कर दिया गया। इतना ही नहीं 'असाधु दुष्ट शब्दोंका उच्चारण वज्र बनकर इन्द्रको तरह जिह्वा १. 'इत्थंच संस्कृत एव शक्तिसिद्धौ शक्यसम्बन्धरूपवृत्तेरपि तत्रैव भावात्तत्त्वं साधुत्वम् ।'-वैयाकरणभू० पृ० २४९ । २. 'शिष्टेभ्य आगमात् सिद्धाः साधवो धर्मसाधनम् ।' ___ -वाक्यप० ११२७। ३. 'तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छित वै नापभाषित वै, म्लेच्छो ह वा एष अप शब्दः।-पात० महा० पस्पशा० ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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