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जैनदर्शन आप्त-कोटि में नहीं आते, वे आप्तसे ऊपर है। हितोपदेशित्वको भावना होनेपर भी यदि पूर्ण ज्ञान और वीतरागता न हो, तो अन्यथा उपदेशकी सम्भावना बनी रहती है। यही नीति लौकिक वाक्योंमें तद्विषयक ज्ञान और तद्विषयक अवञ्चकत्वमें लागू है। शब्दको अर्थवाचकताः अन्यापोह शब्दका वाच्य नहीं :
बौद्ध अर्थको 'शब्दका वाच्य नहीं मानते। उनका कहना है कि शब्द अर्थके प्रतिपादक नहीं हो सकते; क्योंकि जो शब्द अर्थकी मौजूदगीमें उनका कथन करते हैं वे ही अतीत-अनागतरूपसे अविद्यमान पदार्थोंमें भी प्रयुक्त होते हैं। अतः उनका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, अन्यथा कोई भी शब्द निरर्थक नहीं हो सकेगा। स्वलक्षण अनिर्देश्य है । अर्थमें शब्द नहीं है और न अर्थ शब्दात्मक ही है, जिससे कि अर्थक प्रतिभासित होनेपर शब्दका बोध हो या शब्दके प्रतिभासित होनेपर अर्थका बोध अवश्य हो। वासना और संकेतको इच्छाके अनुसार शब्द अन्यथा भी संकेतित किये जाते हैं, इसलिए उनका अर्थसे कोई अविनाभाव नहीं है । वे केवल बुद्धिप्रतिबिम्बित अन्यापोहके वाचक होते हैं । यदि शब्दोंका अर्थसे वास्तविक सम्बन्ध होता तो एक ही वस्तुमें परस्पर विरोधी विभिन्न शब्दोंका और उन शब्दोंके आधारसे रचे हुए विभिन्न दर्शनोंकी सृष्टि न हुई होती। 'अग्नि ठंडी है या गरम' इसका निर्णय जैसे अग्नि स्वयं अपने स्वरूपसे कर देती है, उसी तरह 'कौन शब्द सत्य है और कौन असत्य'
१. 'अतीयाजातयोऽपि न च स्यादनृतार्थता । वाचः कस्याश्चिदित्येषा बौद्धार्थविषया मतः ॥'
-प्रमाणवा० ३।२०७। २ 'परमार्थंकतानत्वे शब्दानामनिबन्धना।
न स्यात्प्रवृत्तिरथपु समयान्तरमेदिपु ॥' -प्रमाणवा० ३।२०६ ।