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शब्दार्थप्रमाणमीमांसा
३६५ इसका निर्णय भी शब्दको अपने स्वरूपसे ही कर देना चाहिये था, पर विवाद आज तक मौजूद है। अतः गौ आदि शब्दोंको सुनकर हमें एक सामान्यका बोध होता है।
यह सामान्य वास्तविक नहीं है । किन्तु विभिन्न गौ व्यक्तियोंमें पाई जानेवाली अगोव्यावृत्तिरूप है। इस अगोपोहके द्वारा 'गौ गौ' इस सामान्यव्यवहारको सृष्टि होती है। और यह सामान्य उन्हीं व्यक्तियोंको प्रतिभासित होता है, जिनने अपनी बुद्धिमें इस प्रकारके अभेदका भान कर लिया है। अनेक गायोंमें अनुस्यूत एक, नित्य और निरंश गोत्व असत् है, क्योंकि विभिन्न देशवर्ती व्यक्तियोंमें एकसाथ एक गोत्वका पाया जाना अनुभवसे विरुद्ध तो है ही, साथ-ही-साथ व्यक्तिके अंतरालमें उसकी उपलब्धि न होनेसे बाधित भी है। जिस प्रकार छात्रमण्डल छात्रव्यक्तियोंको छोड़कर अपना कोई पृथक् अस्तित्व नहीं रहता, वह एक प्रकारकी कल्पना है, जो सम्बन्धित व्यक्तियोंकी बुद्धि तक ही सोमित है, उसी तरह गोत्व और मनुष्यत्वादि सामान्य भी काल्पनिक हैं, बाह्य सत् वस्तु नहीं। सभी गायें गौके कारणोंसे उत्पन्न हुई है और आगे गौके कार्योंको करती हैं, अतः उनमें अगोकारणव्यावृत्ति और अगोकार्यव्यावृत्ति अर्थात् अतत्कार्यकारणव्यावृत्तिसे सामान्यव्यवहार होने लगता है। परमार्थसत् गौ वस्तु क्षणिक है, अतः उसमें संकेत भी ग्रहण नहीं किया जा सकता । जिस गौव्यक्तिमें संकेत ग्रहण किया जायगा, वह गौ व्यक्ति द्वितीय क्षणमें जब नष्ट हो जाती है, तब वह संकेत व्यर्थ हो जाता है; क्योंकि अगले क्षणमें जिन गौव्यक्तियों और शब्दोंसे व्यवहार करना है उन व्यक्तियोंमें तो संकेत ही ग्रहण नहीं किया गया है, वे तो असंकेतित ही हैं । अतः शब्द वक्ताको विवक्षा को सूचित करता हुआ, बुद्धिकल्पित अन्यब्यावृत्ति या अन्यापोहका ही वाचक होता है, अर्थका नहीं। १ "विकल्पप्रतिबिम्बेषु तन्निष्ठेषु निबध्यते।
ततोऽन्यापोहनिष्ठत्वादुक्ताऽन्यापोहकृच्छ्रुतिः ॥'-प्रमाणवा० २।१६४ ।