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आगमप्रमाणमीमांसा
३६३ अपनी देन है, उसमें उसका प्रयत्न, विवक्षा और ज्ञान सभी कारण होते हैं। शब्दार्थ-प्रतिपत्ति :
स्वाभाविक योग्यता और संकेतके कारण शब्द और हस्तसंज्ञा आदि वस्तुको प्रतिपत्ति करानेवाले होते है। जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेयमें ज्ञापक और ज्ञाप्य शक्ति स्वाभाविक है उसी तरह शब्द और अर्थमें प्रतिपादक और प्रतिपाद्य शक्ति स्वाभाविक ही है । जैसे कि हस्तसंज्ञा आदिका अपने अभिव्यञ्जनीय अर्थके साथ सम्बन्ध अनित्य होकर भी इष्ट अर्थकी अभिव्यक्ति करा देता है, उसी तरह शब्द और अर्थका सम्बन्ध अनित्य होकर भी अर्थबोध करा सकता है । शब्द और अर्थका यह सम्बन्ध माता, पिता, गुरु तथा समाज आदिको परम्परा द्वारा अनादि कालसे प्रवाहित है और जगतकी समस्त व्यवहार-व्यवस्थाका मूल कारण बन रहा है ।
___ ऊपर जिस आप्तके वचनको श्रुत या आगम प्रमाण कहा है, उसका व्यापक लक्षण तो 'अवञ्चकत्व या अविसंवादित्व' ही है, परन्तु आगमके प्रकरणमें वह आप्त-सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी विवक्षित है। मनुष्य अज्ञान और रागद्वेषके कारण मिथ्या भाषणमें प्रवृत्त होता है । जिस वस्तुका ज्ञान न हो, या ज्ञान होकर भी किसीसे राग या द्वेष हो, तो ही असत्य वचनका अवसर आता है । अतः सत्यवक्ता आप्तके लिये पूर्ण ज्ञानी और वीतरागी होना तो आवश्यक है ही, साथ-ही-साथ उसे हितोपदेशी भी होना चाहिये । हितोपदेशकी इच्छाके बिना जगतहितमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती । हितोपदेशित्वके बिना सिद्ध पूर्ण ज्ञानी और वीतरागी होकर भी
१. 'यो यत्राविसंवादकः स तत्राप्तः, ततः परोऽनाप्तः । तत्त्वप्रतिपादनमविसंवादः ।'
-अष्टश० अष्टसह० पृ० २३६ । २. 'रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति ॥'-आप्तस्वरूप ।