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जैनदर्शन आजका विज्ञान शब्दतरंगोंको उसी तरह क्षणिक मानता है जिस तरह जैन, बौद्धादिदर्शन । अतः अतीन्द्रिय पदार्थोमें वेदको अन्तिम प्रमाणता मनानेके लिए यह आवश्यक है कि उसका आद्य प्रतिपादक स्वयं अतीन्द्रियदर्शी हो। अतीन्द्रियदर्शनकी असम्भवता कहकर अन्धपरंपरा चलानेसे प्रमाणताका निर्णय नहीं हो सकता। ज्ञानस्वभाववाली आत्माका सम्पूर्ण आवरणोंके हट जानेपर पूर्ण ज्ञानी बन जाना असम्भव बात नहीं है । शब्द वक्ताके भावोंको ढोनेवाला एक माध्यम है, जिसकी प्रमाणता और अप्रमाणता अपनी न होकर वक्ताके गुण और दोषोंपर आश्रित होती है। यानी गुणवान् वक्ताके द्वारा कहा गया शब्द प्रमाण होता है और दोषवाले वक्ताके द्वारा प्रतिपादित शब्द अप्रमाण । इसलिये कोई शब्दको धन्यवाद या गाली नहीं देता, किन्तु उसके बोलनेवाला वक्ताको । वक्ताका अभाव मानकर 'दोष निराश्रय नहीं रहेगे' इस युक्तिसे वेदको निर्दोष कहना तो ऐसा ही है जैसे मेघ गर्जन और बिजलीकी कड़कड़ाहटको निर्दोष बताना। वह इस विधिसे निर्दोष वन भी जाय, पर मेघगर्जन आदिकी तरह वह निरर्थक ही सिद्ध होगा। वह विधि-प्रतिषेध आदि प्रयोजनोंका साधक नहीं बन सकेगा। ___ व्याकरणादिके अभ्याससे लौकिक शब्दोंकी तरह वैदिक पदोंके अर्थको समस्याको हल करना इसलिए असंगत है कि जब शब्दोंके अनेक अर्थ होते है तब अनिष्ट अर्थका परिहार करके इष्ट अर्थका नियमन करना कैसे सम्भव होगा ? प्रकरण आदि भी अनेक हो सकते है । अतः धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थोके साक्षात्कार करनेवालेके विना धार्मिक नियम-उपनियमोंमे वेदकी निर्बाधता सिद्ध नहीं हो सकती। जब एक बार अतीन्द्रियदर्शीको स्वीकार कर लिया, तब वेदको अपौरुषेय मानना निरर्थक ही है। कोई भी पद और वाक्य या श्लोक आदि छन्द रचना पुरुषको इच्छा बुद्धिके बिना सम्भव नहीं है । ध्वनि अपने आप बिना पुरुष-प्रयत्नके निकल सकती है, पर भाषा मानवको