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________________ आगमप्रमाणमीमांसा ३६१ देते तब ऐसी कौन-सी विशेषता है जिससे कि वैदिक शब्दोंको अपौरुषेय कहा जाय ? यदि कोई एक भी व्यक्ति अतीन्द्रियार्थद्रष्टा नहीं हो सकता तो वेदोंकी अतीन्द्रियार्थप्रतिपादकतामें विश्वास कैसे किया जा सकता है ? वैदिक शब्दोंकी अमुक छंदोंमें रचना । वह रचना बिना किसी पुरुषप्रयत्न के अपने आप कैसे हो गई ? यद्यपि मेघगर्जन आदि अनेकों शब्द पुरुष प्रयत्नके बिना प्राकृतिक संयोग-वियोगोंसे होते हैं परन्तु वे निश्चित अर्थके प्रतिपादक नहीं होते और न उनमें सुसंगत छंदोरचना और व्यवस्थितता ही देखी जाती है । अतः जो मनुष्यकी रचनाके समान ही एक विशिष्ट रचना में आवद्ध हैं वे अपौरुषेय नहीं हो सकते । अनादि परंपरारूप हेतुसे वेदको अतीन्द्रियार्थप्रतिपादकताको सिद्धि करना उसी तरह कठिन है जिस तरह गाली-गलौज आदिकी प्रामाणिकता सिद्ध करना । अन्ततः वेदके व्याख्यानके लिए भी अतीन्द्रियार्थदर्शी ही अन्तिम प्रमाण बन सकता है । विवादकी अवस्था में 'यह मेरा अर्थ है यह नहीं यह स्वयं शब्द तो बोलेंगे नहीं । यदि शब्द अपने अर्थके मामले में स्वयं रोकनेवाला होता तो वेदको व्याख्याओं में मतभेद नहीं होना चाहिये था । शब्दमात्रको नित्य मानकर वेदके नित्यत्वका समर्थन करना भी प्रतीतिसे विरुद्ध है; क्योंकि तालु आदिके व्यापारसे पुद्गलपर्यायरूप शब्दकी उत्पत्ति ही प्रमाणसिद्ध हैं, अभिव्यक्ति नहीं | संकेत के लिये शब्दको नित्य मानना भी उचित नहीं है; क्योंकि जैसे अनित्य घटादि पदार्थोंमें अमुक घड़ेके नष्ट होने पर भी अन्य सदृश घड़ोंसे सादृश्यमूलक व्यवहार चल जाता है उसी तरह जिस शब्दमें संकेतग्रहण किया है वह भले ही नष्ट हो जाय, पर उसके सदृश अन्य शब्दों में वाचकव्यवहारका होना अनुभवसिद्ध है । 'यह वही शब्द है, जिसमें मैंने संकेत ग्रहण किया था' इस प्रकारका एकत्वप्रत्यभिज्ञान भी भ्रान्तिके कारण ही होता है; क्योंकि जब हम उस सरीखे दूसरे शब्दको सुनते हैं, तो दीपशिखाकी तरह भ्रमवश उसमें एकत्वका भान हो जाता है ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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