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जैनदर्शन
रुपेय कैसे कहा जा सकता है ? वेदोंमें न केवल ऋषियोंके ही नाम पाये जाते हैं, किन्तु उनमें अनेक ऐतिहासिक राजाओं, नदियों और देशोंके नामोंका पाया जाना इस बातका प्रमाण है कि वे उन उन परिस्थितियोंमें बने हैं ।
बौद्ध वेदोंको अष्टक ऋषिकर्तक कहते है तो जैन उन्हें कालासुरकर्तृक बताते है । अतः उनके कर्तृविशेषमें तो विवाद हो सकता है, किन्तु 'वे पौरुपेय है और उनका कोई-न-कोई बनानेवाला अवश्य है' यह विवाद की बात नहीं है ।
'वेदका अध्ययन सदा वेदाध्ययनपूर्वक ही होता है, अतः वेद अनादि है' यह दलील भी पुष्ट नहीं है; क्योंकि 'कण्व आदि ऋषियोंने काण्वादि शाखाओंकी रचना नहीं की, किन्तु अपने गुरुसे पढ़कर ही उनने उसे प्रकाशित किया' यह सिद्ध करनेवाला कोई भी प्रमाण नहीं है । इस तरह तो यह भी कहा जा सकता है कि महाभारत भी व्यासने स्वयं नहीं बनाया; किन्तु अन्य महाभारत के अध्ययनसे उसे प्रकाशित किया है ।
इसी तरह कालको हेतु बनाकर वर्तमान कालकी तरह अतीत और अनागत कालको वेदके कर्त्तासे शून्य कहना बहुत विचित्र तर्क है । इस तरह तो किसी भी अनिश्चित कर्तृक वस्तुको अनादि अनन्त सिद्ध किया जा सकता है । हम कह सकते है कि महाभारतका बनानेवाला अतीत कालमें नहीं था, क्योंकि वह काल है जैसे कि वर्तमान काल ।
जब वैदिक शब्द लौकिक शब्दके समान ही संकेतग्रहणके अनुसार अर्थका बोध कराते हैं और बिना उच्चारण किये पुरुषको सुनाई नहीं
१.
'सजन्ममरणषिगोत्रचरणादिनामश्रुतेः ।
अनेकपदसंहतिप्रतिनियमसन्दर्शनात् ।
फलार्थिपुरुषप्रवृत्तिविनिवृत्तिहेत्वात्मनाम् ।
श्रुतेश्च मनुसूत्रवत् पुरुषकर्तृकैव श्रुतिः ॥ ' - पात्रकेसरिस्तोत्र लो० १४ ।