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आगमप्रमाणमीमांसा वेदापौरुषेयत्व विचार: ___हम रहले लिख चुके है कि मोमांसक पुरुषमे पूर्ण ज्ञान और वीतरागताका विकास नहीं मानता और धर्मप्रतिपादक वंदवाक्यको किसी पुरुषविशेषको कृति न मानकर उसे अपौरुषेय या अकर्तृक मानता है। उस अपौरुषेयत्वकी सिद्धि के लिए 'अस्मर्यमाण कर्तृकत्व' हेतु दिया जाता है। इसका अर्थ है कि यदि वेदका कोई कर्ता होता तो उसका स्मरण होना चाहिये था, चूँकि स्मरण नहीं है, अतः वेद अनादि है और अपौरुषेय है। किन्तु, कर्ताका स्मरण नहीं होना किसीकी अनादिता और नित्यताका प्रमाण नहीं हो सकता । नित्य वस्तु अकर्तृक ही होती है। कर्ताका स्मरण होने और न होनेसे पौरुषेयता या अपौरुषेयताका कोई सम्बन्ध नहीं है । बहुतसे पुराने मकान, कुएँ, खंडहर आदि ऐसे उपलब्ध होते है, जिनके कर्ताओं या बनानेवालोंका स्मरण नहीं है, फिर भी वे अपौरुषेय नहीं है। ____ अपौरुपेय होना प्रमाणताका साधक भी नहीं है। बहुत-से लौकिकम्लेच्छादि व्यवहार-गाली-गलौज आदि ऐसे चले आते है, जिनके कर्ताका कोई स्मरण नहीं है, पर इतने मात्रसे वे प्रमाण नहीं माने जा सकते । 'वटे वटे वैश्रवणः' इत्यादि अनेक पद-वाक्य परम्परासे कर्ताके स्मरणके बिना ही चले आते है, पर वे प्रमाणकोटिमें शामिल नहीं है ।
पुराणोंमें वेदको ब्रह्माके मुखसे निकला हुआ बताया है। और यह भी लिखा है कि प्रतिमन्वन्तरमें भिन्न-भिन्न वेदोंका विधान होता है । “यो वेदांश्च प्रहिणोति" इत्यादि वाक्य वेदके कर्ताके प्रतिपादक है ही। जिस तरह याज्ञवल्क्यस्मृति और पुराण ऋषियोंके नामोंसे अंकित होनेके कारण पौरुषेय है, उसी तरह काण्व, माध्यन्दिन, तैत्तिरीय आदि वेदकी शाखाएँ भी ऋषियोंके नामसे अंकित पायी जाती है, अतः उन्हें अनादि या अपो
१. "प्रतिमन्वन्तरं चैव श्रुतिरन्या विधीयते"-मत्स्यपु० १४५।५८ । २. श्वेता० ६।१८।