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जैनदर्शन
परम्परामें इसका उत्तर है 'नहीं हो सकता', जब कि जैन परम्परा यह कहती है कि "जिस पुरुषने वीतरागता और तत्त्वज्ञता प्राप्त कर ली है उसे किसी शास्त्र या आगमके आधारको या नियन्त्रणको आवश्यकता नहीं रहती। वह स्वयं शास्त्र बनाता है, परम्पराएँ रचता हैं और सत्यको युगशरीरमें प्रकट करता है। अतः मध्यकालीन व्यवस्थाके लिए आगमिक क्षेत्र आवश्यक और उपयोगी होने पर भी उसकी प्रतिष्ठा सार्वकालिक और सब पुरुपोंके लिए एक-सी नहीं है ।
एक कल्पकालमें चौबीस तीर्थङ्कर होते हैं। वे सब अक्षरशः एक ही प्रकारका उपदेश देते हों, ऐसी अधिक सम्भावना नहीं है; यद्यपि उन सबका तत्त्वसाक्षात्कार और वीतरागता एक-जैसी ही होती है । हर तीर्थङ्करके समय विभिन्न व्यक्तियोंकी परिस्थितियाँ जुदे-जुदे प्रकारकी होती है, और वह उन परिस्थितियोंमें उलझे हुए भव्य जीवोंको सुलटने और सुलझनेका मार्ग बताता है । यह ठीक है कि व्यक्तिकी मुक्ति और विश्वकी शान्तिके लिए अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्तदृष्टि और व्यक्तिस्वातन्त्र्यके सिद्धान्त त्रैकालिक हैं । इन मूल सिद्धान्तोंके साक्षात्कारमें किसी भी तीर्थङ्करको मतभेद नहीं हुआ; क्योंकि मूल सत्य दो प्रकारका नहीं होता। परन्तु उस मूल सत्यको जीवनव्यवहारमें लानेके प्रकार व्यक्ति, समाज, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदिकी दृष्टिसे अनन्त प्रकारके हो सकते हैं । यह बात हम सबके अनुभवको है। जो कार्य एक समयमें अमुक परिस्थितिमें एकके लिए कर्तव्य होता है, वही उसी व्यक्तिको परिस्थिति बदलनेपर अखरता है। अतः कर्तव्याकर्त्तव्य और धर्माधर्मको मूल आत्मा एक होनेपर भी उसके परिस्थिति-शरीर अनेक होते हैं, पर सत्यासत्यका निर्णय उस मूल आत्माको संगति और असंगतिसे होता है । जैन परम्पराकी यह पद्धति श्रद्धा और तर्क दोनोंको उचित स्थान देकर उनका समन्वय करती है।