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आगमप्रमाणमीमांसा
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वहाँ हेतुसे ही तत्त्वको सिद्धि करनी चाहिए और जहां वक्ता आप्त-सर्वज्ञ और वीतराग हो वहां उसके वचनोंपर विश्वास करके भी तत्त्वसिद्धि की जा सकती है। पहला प्रकार हेतुसाधित कहलाता है और दूसरा प्रकार आगमसाधित । मूलमें पुरुषके अनुभव और साक्षात्कारका आधार होनेपर भी एक बार किसी पुरुषविशेषमें आप्तताका निश्चय हो जानेपर उसके वाक्यपर विश्वास करके चलनेका मार्ग भी है। लेकिन यह मार्ग बोचके समयका है। इससे पुरुषको बुद्धि और उसके तत्त्वसाक्षात्कारकी अन्तिम प्रमाणताका अधिकार नहीं छिनता। जहां वक्ताकी अनाप्तता निश्चित है वहाँ उसके वचनोंको या तो हम तर्क और हेतुसे सिद्ध करेंगे या फिर आप्तवक्ताके वचनोंको मूल आधार मानकर उससे संगति बैठने पर ही उनकी प्रमाणता मानेंगे। इस विवेचनसे इतना तो समझमें आ जाता है कि वक्ताको आप्तता और अनाप्तताका निश्चय करनेकी जिम्मेवारी अन्ततः युक्ति और तर्क पर ही पड़ती है। एक बार निश्चय हो जानेके बाद फिर प्रत्येक वाक्यमें युक्ति या हेतु ढूँडो या न ढूँडो, उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है । चालू जीवनके लिए यही मार्ग प्रशस्त हो सकता है। बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जिनमें युक्ति और तर्क नहीं चलता, उन बातोंको हमें आगमपक्षमें डालकर वक्ताके आप्तत्वके भरोसे ही चलना होता है, और चलते भी हैं । परन्तु यहां वैदिक परम्पराके समान अन्तिम निर्णय अकर्तृक शब्दोंके आधीन नहीं है । यही कारण है कि प्रत्येक जैन आचार्य अपने नूतन ग्रन्थके प्रारम्भमें उस ग्रन्थको परम्पराको सर्वज्ञ तक ले जाता है और इस वातका विश्वास दिलाता है कि उसके प्रतिपादित तत्त्व कपोल-कल्पित न होकर परम्परासे सर्वज्ञप्रतिपादित ही हैं । __तर्ककी एक सीमा तो है ही। पर हमें यह देखना है कि अन्तिम अधिकार किसके हाथमें है ? क्या मनुष्य केवल अनादिकालसे चली आई अकर्तृक परम्पराओंके यन्त्रजालका मूक अनुसरण करनेवाला एक जन्तु ही है या स्वयं भी किसी अवस्थामें निर्माता और नेता हो सकता है ? वैदिक