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________________ ३५६ जैनदर्शन इसीलिए उसे 'तीर्थङ्करोतीति तीर्थङ्करः' तीर्थङ्कर कहते है । वह केवल तीर्थज्ञ ही नहीं होता। इस तरह मूलरूपमे धर्मके कर्ता और मोक्षमार्गके नेता ही धर्मतीर्थके प्रवर्तक होते है । आगे उन्हीके वचन 'आगम' कहलाते है। ये सर्व प्रथम गणधरोके द्वारा 'अङ्गश्रुत' के रूपमे ग्रथित होते है । इनके शिष्य-प्रशिष्य तथा अन्य आचार्य उन्ही आगम-ग्रन्थोंका आधार लेकर जो नवीन ग्रन्थ-रचना करते है वह 'अंगबाह्य' साहित्य कहलाता है । दोनोंकी प्रमाणताका मूल आधार पुरुषका निर्मल ज्ञान ही है ! यद्यपि आज वैसे निर्मल ज्ञानी साधक नही होते, फिर भी जब वे हुए थे तब उन्होने सर्वज्ञप्रणीत आगमका आधार लेकर ही धर्मग्रन्थ रचे थे। आज हमारे सामने दो ज्ञानक्षेत्र स्पष्ट खुले हुए है-एक तो वह ज्ञानक्षेत्र, जिसमे हमारा प्रत्यक्ष, युक्ति तथा तर्क चल सकते है और दूसरा वह क्षेत्र, जिसमे तर्क प्रादिकी गुञ्जाइश नहीं होती, अर्थात् एक हेतुवाद पक्ष और दूसरा आगमवाद पक्ष । इस सम्बन्धमे जैन आचार्योने अपनी नीति बहुत विचारके बाद यह स्थिर की है कि हेतुवादपक्षमे हेतुसे और आगमवादपक्षमे आगमसे व्यवस्था करनेवाला स्वसमयका प्रज्ञापक-आराधक होता है और अन्य सिद्धान्तका विराधक होता है। जैसा कि आचार्य सिद्धसेनकी इस गाथासे स्पष्ट है "जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमम्मि आगमओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अण्णो॥" -सन्मति० ३।४५ । आचार्थ 'समन्तभद्रने इस सम्बन्धमें निम्नलिखित विचार प्रकट किये है कि जहाँ वक्ता अनाप्त, अविश्वसनीय, अतत्त्वज्ञ और कषायकलुष हों १. "वक्तर्यनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधितम् । आप्ते वक्तरि तद्वाक्यात् साधितमागमसाधितम् ॥" -आप्तमी० श्लो० ७८ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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