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________________ आगमप्रमाणमीमांसा ३५३ देव' ने आप्तका व्यापक अर्थ किया है कि जो जिस विषय में अविसंवासदक है वह उस विषयमें आप्त है । आप्तताके लिए तद्विषयक ज्ञान और उस विषय में अविसंवादकता या अवचकताका होना ही मुख्य शर्त है । इसलिए व्यवहारमें होनेवाले शब्दजन्य अर्थबोधको भी एक हद तक आगमप्रमाणमें स्थान मिल जाता है । जैसे कोई कलकत्तेका प्रत्यक्षद्रष्टा यात्री आकर कलकत्तेका वर्णन करे तो उन शब्दोंको सुनकर वक्ताको प्रमाण माननेवाले श्रोताको जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह भी आगमप्रमाणमे शामिल है । वैशेषिक और बौद्ध आगमज्ञानको भी अनुमान प्रमाण में अन्तर्भूत करते है । परन्तु शब्दश्रवण, संकेतस्मरण आदि सामग्री से लिङ्गदर्शन और व्याप्तिस्मरणके बिना ही होनेवाला यह आगमज्ञान अनुमान में शामिल नहीं हो सकता । श्रुत या आगमज्ञान केवल आप्तके शब्दोंसे ही उत्पन्न नहीं होता, किन्तु हाथ के इशारे आदि संकेतोंसे और ग्रन्थको लिपिको पढ़ने आदिसे भी होता है । इनमें संकेतस्मरण ही मुख्य प्रयोजक है । श्रुतके तीन भेद : अकलंकदेवने प्रमाणसंग्रह मे श्रुतके प्रत्यक्षनिमित्तक, अनुमाननिमित्तक तथा आगमनिमित्तक ये तीन भेद किये हैं । परोपदेशको सहायता लेकर प्रत्यक्षसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत प्रत्यक्षपूर्वक श्रुत है, परोपदेशसहित लिंगसे उत्पन्न होनेपाला श्रुत अनुमानपूर्वक श्रुत और केवल परोपदेशसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत आगमनिमित्तक श्रुत है । जैनतर्कवार्तिककार प्रत्यक्षपूर्वक श्रुतको नहीं मानकर परोपदेशज और लिङ्गनिमित्तक ये दो ही श्रुत मानते हैं । तात्पर्य यह हैं कि जैनपरंपराने आगमप्रमाणमें १. “यो यत्राविसंवादकः स तत्राप्तः, ततः परोऽनाप्तः । तत्त्वप्रतिपादनमविसंवादः, तदर्थज्ञानात् ।” - अष्टश ०, अष्टसह० पृ० २३६ । २. "श्रुतमविलवं प्रत्यक्षानुमानागमनिमित्तम् । " - प्रमाणसं० पृ० १ । ३. जैनतर्कवार्तिक पृ० ७४ । २३
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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