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जैनदर्शन
मुख्मतया तीर्थङ्करकी वाणीके आधारसे साक्षात् या परंपरासे निबद्ध ग्रन्थविशेषों को लेकर भी उसके व्यावहारिक पक्षको नहीं छोड़ा है । व्यवहारमे प्रामाणिक वक्ता के शब्दको सुनकर या हस्तसंकेत आदिको देखकर संकेतस्मरणसे जो भी ज्ञान उत्पन्न होता है, वह आगम प्रमाणमें शामिल हैं | आगमवाद और हेतुवादका क्षेत्र अपना-अपना निश्चित है— अर्थात् आगमके बहुत से अंश ऐसे हो सकते है, जहाँ कोई हेतु या युक्ति नहीं चलती । ऐसे विषयोंमे युक्तिसिद्ध वचनोंकी एककर्तृकतासे युक्त्यसिद्ध वचनों को भी प्रमाण मान लिया जाता है ।
आगमवाद और हेतुवाद :
जैन परम्पराने वेद अपौरुषेयत्व और स्वतः प्रामाण्यको नहीं माना है । उसका कारण यह है कि कोई भी ऐसा शब्द, जो धर्म और उसके नियम- उपनियमोंका विधान करता हो, वीतराग और तत्त्वज्ञ पुरुषका आधार पाये बिना अर्थबोध नही करा सकता । जिनकी शब्द रचनामें एक सुनिश्चित क्रम, भावप्रवणता और विशेष उद्देश्यको सिद्धि करनेका प्रयोजन हो, वे वेद बिना पुरुषप्रयत्नके चले आये, यह संभव नहीं, अर्थात् अपौरुषेय नहीं हो सकते । वैसे मेघगर्जन आदि बहुत से शब्द ऐसे होते हैं, जिनका कोई विशेष अर्थ या उद्देश्य नहीं होता, वे भले ही अपौरुषेय हों; पर उनसे किसी विशेष प्रयोजनकी सिद्धि नहीं हो सकती ।
वेदको अपौरुपेय माननेका मुख्य प्रयोजन था — पुरुपकी शक्ति और तत्त्वज्ञतापर अविश्वास करना । यदि पुरूषोंकी बुद्धिको स्वतन्त्र विचार करनेकी छूट दी जाती है तो किसी अतीन्द्रिय पदार्थ के विषय में कोई एक निश्चित मत नहीं वन सकता था । धर्म ( यज्ञ आदि ) इस अर्थमं अतीन्द्रिय है कि उसके अनुष्ठान करनेसे जो संस्कार या अपूर्व पैदा होता है; वह कभी भी इन्द्रियोंके द्वारा ग्राह्य नहीं होता, और न उसका फल स्वर्गादि ही इन्द्रियग्राह्य होते हैं । इसीलिए 'परलोक है या नही' यह बात