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________________ ३५२ जैनदर्शन व्युत्पत्तिके अनुसार मुख्यरूपसे कानसे सुनाई देनेवाले वाक्यको पत्रवाक्य कह सकते हैं। ५. आगम-श्रुत मतिज्ञानके बाद जिस दूसरे ज्ञानका परोक्षरूपसे वर्णन मिलता है, वह है श्रुतज्ञान । परोक्ष प्रमाणमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान मतिज्ञानकी पर्यायें हैं जो मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे प्रकट होती हैं । श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे जो श्रुत प्रकट होता है, उसका वर्णन सिद्धान्त-आगमग्रन्थोंमें भगवान महावीरकी पवित्र वाणीके रूपमें पाया जाता है। तीर्थङ्कर जिस अर्थको अपनी दिव्य-ध्वनिसे प्रकाशित करते है, उसका द्वादशांगरूपमें ग्रथन पणधरोंके द्वारा किया जाता है । यह श्रुत अंगप्रविष्ट कहा जाता है और जो श्रुत अन्य आरातीय शिष्यप्रशिष्योंके द्वारा रचा जाता है, वह अंगबाह्य श्रुत है। अंग-प्रविष्ट श्रुतके आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अंतकृतदश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद ये बारह भेद हैं । अंगबाह्य श्रुत कालिक, उत्कालिक आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है। यह वर्णन आगमिकदृष्टिसे है । जैन परम्परामें श्रुतप्रमाणके नामसे इन्हीं द्वादशांग और द्वादशांगानुसारी अन्य शास्त्रोंको आगम या श्रृंतको मर्यादामें लिया जाता है। इसके मूलकर्ता तीर्थकर हैं और उत्तरकर्ता उनके साक्षात् शिष्य गणधर तथा उत्तरोत्तर कर्ता प्रशिष्य आदि आचार्यपरम्परा है। इस व्याख्यासे आगम प्रमाण या श्रुत वैदिक परम्पराके 'श्रुति' शब्दकी तरह अमुक ग्रन्थों तक ही सीमित रह जाता है। परन्तु परोक्ष आगम प्रमाणसे इतना ही अर्थ इष्ट नहीं है, किन्तु व्यवहारमें भी अविसंवादी और अवंचक आप्तके वचनोंको सुनकर जो अर्थबोध होता है, वह भी आगमको मर्यादामें आता है । इसलिए अकलंक
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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