SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुमानप्रमाणमीमांसा ३५१ जब कोई वादी पत्र देता है और प्रतिवादी उसके अर्थको समझकर खण्डन करता है, उस समय यदि वादी यह कहे कि 'यह मेरे पत्रका अर्थ नहीं है'; तब उससे पूछना चाहिए कि 'जो आपके मनमे है वह इसका अर्थ है ? या जो इस वाक्यरूप पत्रसे प्रतीत होता है वह है, या जो आपके मनमें भी है और वाक्यसे प्रतीत भी होता है ?' प्रथम विकल्पमें पत्रका देना ही निरर्थक है; क्योंकि जो अर्थ आपके मनमें मौजूद है उसका जानना ही कठिन है, यह पत्रवाक्य तो उसका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता । द्वितीय विकल्प ही उचित मालूम पड़ता है कि प्रकृति, प्रत्यय आदिके विभागसे जो अर्थ उस पत्रवाक्यसे प्रतीत होता हो, उसीका साधन और दूषण शास्त्रार्थमें होना चाहिये। इसमें प्रकरण आदिसे जितने भी अर्थ सम्भव हों वे सब उस पत्रवाक्यके अर्थ माने जायगे। इसमें वादीके द्वारा इष्ट होनेकी शर्त नहीं लगाई जा सकती; क्योंकि जब शब्द प्रमाण है तब उससे प्रतीत होनेवाले समस्त अर्थ स्वीकार किये ही जाने चाहिये । तीसरे विकल्पमे विवादका प्रश्न इतना ही रह जाता है कि कोई अर्थ शब्दसे प्रतीत हुआ और वही वादीके मनमें भी था, फिर भी यदि दुराग्रहवश वादी यह कहनेको उतारू हो जाय कि 'यह मेरा अर्थ ही नहीं है', तो उस समय कोई नियन्त्रण नहीं रखा जा सकेगा। अतः इसका एकमात्र सीधा मार्ग है कि जो प्रसिद्धिके अनुसार उन शब्दोंसे प्रतीत हो, वही अर्थ माना जाय। यद्यपि वाक्य श्रोत्र-इन्द्रियके द्वारा सुने जानेवाले पदोंके समुदायरूप होते है और पत्र होता है एक कागजका लिखित टुकड़ा, फिर भी उसे उपचरितोपचार विधिसे वाक्य कहा जा सकता है। यानी कानसे सुनाई देनेवाले पदोंका सांकेतिक लिपिके आकारों में उपचार होता है और लिपिके आकारोंमे उपचरित वाक्यका कागज आदि पर लिखित पत्रमें उपचार किया जाता है। अथवा पत्र-वाक्यको 'पदोंका त्राण अर्थात् प्रतिवादीसे रक्षण हो जिन वाक्योंके द्वारा, उसे पत्रवाक्य कहते हैं। इस
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy