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जैनदर्शन बारीकीसे पालन करने और न करनेका प्रदर्शन ही जय और पराजयका आधार हुआ; स्वपक्षसिद्धि या परपक्षदूषण जैसे मौलिक कर्तव्य नहीं । इसमें इस बातका ध्यान रखा गया है कि पञ्चावयववाले अनुमानप्रयोगमें कुछ कमी-बेसी और क्रमभंग यदि होता है तो उसे पराजयका कारण होना ही चाहिए।
धर्मकीति आचार्यने इन छल, जाति और निग्रहस्थनोंके आधारसे होने वालो जय-पराजय-व्यवस्थाका खण्डन करते हुए लिखा है कि जयपराजयको व्यवस्थाको इस प्रकार घुटालेमें नहीं रखा जा सकता। किसी भी सच्चे साधनवादीका मात्र इसलिए निग्रह होना कि 'वह कुछ अधिक बोल गया या कम बोल गया या उसने अमुक कायदेका वाकायदा पालन नहीं किया' सत्य, अहिंसा और न्यायको दृष्टिसे उचित नहीं है । अतः वादो और प्रतिवादीके लिए क्रमशः असाधानांगवचन और अदोषोद्भावन ये दो ही निग्रहस्थान' मानना चाहिये । वादीका कर्तव्य है कि वह निर्दोष और पूर्ण साधन बोले, और प्रतिवादीका कार्य है कि वह यथार्थ दोपोंका उद्भावन करे । यदि वादी सच्चा साधन नहीं बोलता या जो साधनके अंग नहीं है ऐसे वचन कहता है यानी साधनांगका अवचन या असाधनांगका वचन करता है तो उसकी असाधनांग वचन होनेसे पराजय होगी। इसी तरह प्रतिवादी यदि यथार्थ दोषोंका उद्भावन न कर सके या जो वस्तुतः दोष नहीं हैं उन्हें दोषको जगह बोले तो दोषानुभावन और अदोषोद्भावन होनेसे उसकी पराजय अवश्यंभावी है।
इस तरह सामन्यलक्षण करनेपर भी धर्मकीर्ति फिर उसी घपलेमें पड़ गये है। उन्होंने असाधनांग वचन और अदोषोद्भावनके विविध
१. “असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः।
निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्तमिति नेष्यते ॥"-वादन्याय पृ० १ । २. देखो, वादन्याय, प्रथमप्रकरण ।