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अनुमानप्रमाणमीमांसा
३४५ का निर्णय कौन देगा? और उभयपक्षवेदी सभ्योंके बिना स्वमतोन्मत्त वादिप्रतिवादियोंको सभापतिके अनुशासनमें रखनेका कार्य कौन करेगा ? अतः वाद चतुरंग होता है। जय-पराजयव्यवस्था :
नैयायिकोंने जब जल्प और वितण्डामें छल, जाति और निग्रहस्थानका प्रयोग स्वीकार कर लिया, तब उन्हींके आधारपर जयपराजयकी व्यवस्था बनी। इन्होंने प्रतिज्ञाहानि आदि बाईस निग्रहस्थान माने है । सामान्यसे 'विप्रतिपत्ति-विरुद्ध या असम्बद्ध कहना और अप्रतिपत्ति-पक्षस्थापन नहीं करना, प्रतिवादीके द्वारा स्थापितका प्रतिषेध नहीं करना तथा प्रतिपिद्ध स्वपक्षका उद्धार नहीं करना' ये दो ही निग्रहस्थान'पराजयस्थान होते है। इन्हींके विशेष भेद प्रतिज्ञाहानि आदि बाईस है। जिनमें बताया है कि यदि कोई वादी अपनी प्रतिज्ञाकी हानि करदे, दूसरा हेतु बोलदे, असम्बद्ध पद, वाक्य या वर्ण बोले, इस तरह बोले जिससे तीन बार कहने पर भी प्रतिवादो और परिपद न समझ सके, हेतु, दृष्टान्त आदिका क्रम भंग हो जाय, अवयव न्यून या अधिक कहे जाँय, पुनरुक्ति हो, प्रतिवादी वादीके द्वारा कहे गये पक्षका अनुवाद न कर सके, उत्तर न दे सके, दूपणको अर्ध स्वीकार करके खण्डन करे, निग्रहयोग्यके लिए निग्रहस्थानका उद्भावन न कर सके, जो निग्रहयोग्य नहीं है, उसे निग्रहस्थान बतावे, सिद्धान्तविरुद्ध बोले, हेत्वाभासोंका प्रयोग करे तो निग्रहस्थान अर्थात् पराजय होगी। ये शास्त्रार्थके कानून है, जिनका थोड़ा-सा भी भंग होने पर सत्यसाधनवादीके हाथमें भी पराजय आ सकती है और दुष्ट साधनवादी इन अनुशासनके नियमोंको पालकर जयलाभ भी कर सकता है। तात्पर्य यह कि यहाँ शास्त्रार्थके नियमोंका
१. “विप्रतिपत्तिरपतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् ।"-न्यायम० १।२।१९ । २.न्यायसू० ५।२।१।