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जैनदर्शन
छलादिके प्रयोगके आपवादिक औचित्यका नहीं मानना और इन असद् उपायोंके सर्वथा परिवर्जनका विधान, उनकी सिद्धान्त-स्थिरताका हो प्रतिफल है । अकलंकदेवने इसी सत्य और अहिंसाकी दृष्टिसे ही छलादिरूप असद् उत्तरोंके प्रयोगको सर्वथा अन्याय्य और परिवर्जनीय माना है | अतः उनकी दृष्टिसे वाद और जल्पमें कोई भेद नहीं रह जाता । इसलिए वे संक्षेपमें समर्थवचनको वाद कहकर भी कहीं वादके स्थान में जल्प शब्दका भी प्रयोग कर देते हैं । उनने बतलाया है कि मध्यस्थोंके समक्ष वादी और प्रतिवादियोंके स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषणरूप वचनको वाद कहते हैं । वितण्डा 'वादाभास है, जिसमें वादी अपना पक्षस्थापन नहीं करके मात्र खण्डन- -ही-खण्डन करता है, जो सर्वथा त्याज्य है । न्यायदीपिका ( पृ० ७६ ) तत्त्वनिर्णय या तत्त्वज्ञानके विशुद्ध प्रयोजनसे जयपराजयको भावनासे रहित गुरु-शिष्य या वीतरागी विद्वानोंमें तत्त्वनिर्णय तक चलनेवाले वचनव्यवहारको वीतराग कथा कहा है, और वादी तथा प्रतिवादीमें स्वमत - स्थापन के लिए जयपराजयपर्यन्त चलनेवाले वचनव्यवहारको विजिगीषु कथा कहा है ।
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वीतराग कथा सभापति और सभ्योंके अभाव में भी चल सकती है, और जब कि विजिगीषु कथामें वादी और प्रतिवादीके साथ सभ्य और सभापतिका होना भी आवश्यक है । सभापतिके बिना जय और पराजय
१. देखा, सिद्धिविनिश्चय, जल्पसिद्धि ( ५ वाँ परिच्छेद ) । “समर्थवचनं वाद :” - प्रमाणसं ० श्लो० ५१ ।
३. “समर्थवचनं जल्पं चतुरङ्गं विदुर्बुधाः । पक्षनिर्णयपर्यन्तं फलं मार्गप्रभावना ॥ "
- सिद्धिवि०, ५|२ |
४. “ तदाभासो वितण्डादिरभ्युपेताव्यवस्थितेः ।”— न्यायवि० २।३८४ । ५. “यथोक्तोपपन्नः छलजातिनिग्रहस्थानसाधानोपालम्भो जल्पः ।
स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा ।" न्यायसू० १।२।२-३ |