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________________ अनुमानप्रमाणमीमांसा ३४७ व्याख्यान करके कहा है कि अन्वय या व्यतिरेक किसी एक दृष्टान्तसे ही साध्यको सिद्धि जब संभव है तब दोनों दृष्टान्तोंका प्रयोग करना असाधनाङ्गवचन होगा। त्रिरूप हेतुका वचन साधनाग है। उसका कथन न करना असाधनांग है। प्रतिज्ञा, निगमन आदि साधनके अंग नहीं है, उनका कथन असाधनांग है। इसी तरह उनने अदोपोद्भावनके भी विविध व्याख्यान किये है। यानी कुछ कम वोलना या अधिक बोलना, इनकी दृष्टिमें भी अपराध है। यह सब लिखकर भी अन्तमें उनने सूचित किया है कि स्वपक्ष-सिद्धि और परपक्ष-निराकरण ही जय-पराजयकी व्यवस्थाके आधार होना चाहिये । आचार्य अकलंकदेव अमाधनांग वचन तथा अदोपोद्भावनके झगड़ेको भी पसंद नहीं करते । 'त्रिरूपको साधनांग माना जाय, पंचरूपको नहीं, किसको दोप माना जाय, किसको नहीं' यह निर्णय स्वयं एक शास्त्रार्थका विषय हो जाता है। शास्त्रार्थ जब वौद्ध, नैयायिक और जैनोंके बीच चलते है, जो क्रमशः त्रिरूपवादी, पंचरूपवादी और एकरूपवादी है तब हराएक दूसरेको अपेक्षा असाधनांगवादी हो जाता है । ऐसी अवस्थामें शास्त्रार्थके नियम स्वयं ही शास्त्रार्थके विषय बन जाते है । अतः उन्होंने बताया कि वादीका काम है कि वह अविनाभावी साधनसे स्वपक्षकी सिद्धि करे और पर पक्षका निराकरण करे । प्रतिवादीका कार्य है कि वह वादीके स्थापित पक्ष में यथार्थ दूषण दे और अपने पक्षकी सिद्धि भी करे। इस तरह स्वपक्षसिद्धि और परपक्षका निराकरण ही बिना किसी लागलपेटके जय और पराजयके आधार होने चाहिये । इसीमें सत्य, अहिंसा और न्यायकी सुरक्षाहै। स्वपक्षकी सिद्धि करनेवाला यदि कुछ अधिक भी बोल जाय तो भी कोई हानि नहीं है । “स्वपक्षं प्रसाध्य नृत्यतोऽपि दोषाभावात् , १. “तदुक्तम्-स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः । नासाधनाङ्गवचनं नादोषोद्भावनं द्वयोः ॥"-उद्धृत अष्टसह० पृ० ८७ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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