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________________ अनुमानप्रमाणमीमांसा ३४१ क विजिगीषुओंकी कथा जल्प और वितण्डा है । दोनों कथाओंमें पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह आवश्यक है । 'वादमें प्रमाण और तर्कके द्वारा स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषण किये जाते हैं। इसमें सिद्धान्तसे अविरुद्ध पञ्चाara arrest प्रयोग अनिवार्य होनेसे न्यून, अधिक, अपसिद्धान्त और पाँच हेत्वाभास इन आठ निग्रहस्थानोंका प्रयोग उचित माना गया है । अन्य छल, जाति आदिका प्रयोग इस वादकथामें वर्जित है । इसका उद्देश्य तत्त्वनिर्णय करना है । जल्प और वितण्डामें छल, जाति और निग्रहस्थान जैसे असत् उपायोंका अवलम्बन लेना भी न्याय्य माना गया है । इनका उद्देश्य तत्त्वसंरक्षण करना है और तत्त्वकी संरक्षा किसी भी उपायसे करनेमें इन्हें आपत्ति नहीं है । न्यायसूत्र ( ४।२।५० ) में स्पष्ट लिखा है कि जिस तरह अंकुरकी रक्षाके लिए काँटोंकी बारी लगायी जाती है, उसी तरह तत्त्वसंरक्षण के लिये जल्प और वितण्डामें काँटेके समान छल, जाति अदि असत् उपायोंका अवलम्बन लेना भी अनुचित नहीं है । जनता मूढ़ और गतानुगतिक होती है । वह दुष्ट वादीके द्वारा ठगी जाकर कुमार्गमें न चली जाय, इस मार्ग संरक्षणके उद्देश्यसे कारुणिक मुनिने छल आदि जैसे असत् उपायोंका भी उपदेश दिया है । 3 वितण्डा कथा में वादी अपने पक्षके स्थापनकी चिन्ता न करके केवल प्रतिवादी के पक्ष में दूपण -ही-दूपण देकर उसका मुँह बन्द कर देता है, जब कि जल्प कथामें परपक्ष खण्डनके साथ-ही-साथ स्वपक्ष- स्थापन भी आवश्यक होता है । इस तरह स्वमत संरक्षणके उद्देश्य से एकबार छल, जाति जैसे असत् उपायोंके अवलम्बनकी छूट होनेपर तत्त्वनिर्णय गौण हो गया; और २. न्यायमू० ११२२२, ३। १. न्यायसू० ११२।१। ३. “ गतानुगतिको लोकः कुमार्ग तत्प्रतारितः । मागादिति छलादीनि प्राह कारुणिको मुनिः ॥” – न्यायमं० पृ० ११ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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