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________________ ३४२ जैनदर्शन शास्त्रार्थके लिए ऐसी नवीन भापाकी सृष्टि की गई, जिसके शब्दजालमें प्रतिवादी इतना उलझ जाय कि वह अपना पक्ष ही सिद्ध न कर सके। इसी भूमिकापर केवल व्याप्ति, हेत्वाभास आदि अनुमानके अवयवोंपर सारे नव्यन्यायको सृष्टि हुई। जिनका भीतरी उद्देश्य तत्त्वनिर्णयकी अपेक्षा तत्त्वसंरक्षण ही विशेष मालूम होता है ! चरकके विमानस्थानमें संधायसंभाषा और विगृह्य-सम्भाषा ये दो भेद उक्त वाद और जल्प वितण्डाके अर्थमें ही आये हैं । यद्यपि नैयायिकने छल आदिको असद् उत्तर माना है और साधारण अवस्थामें उसका निषेध भी किया है, परन्तु किसी भी प्रयोजनसे जब एक बार छल आदि घुस गये तो फिर जय-पराजयके क्षेत्रमें उन्हींका राज्य हो गया। बौद्ध परम्पराके प्राचीन उपायहृदय और तर्कशास्त्र आदिमें छलादिके प्रयोगका समर्थन देखा जाता है, किन्तु आचार्य धर्मकीतिने इसे सत्य और अहिंसाकी दृष्टिसे उचित न समझकर अपने वादन्याय ग्रन्थमें उनका प्रयोग सर्वथा अमान्य और अन्याय्य ठहराया है । इसका भी कारण यह है कि बौद्ध परम्परामें धर्मरक्षाके साथ संघरक्षाका भी प्रमुख स्थान है । उनके 'त्रिशरणमें बुद्ध और धर्मको शरण जानेके साथ ही साथ संघके शरणमें भी जानेकी प्रतिज्ञा को जाती है। जब कि जैन परम्परामें संघशरणका कोई स्थान नहीं है। इनके चतुःशरणमें अर्हन्त, सिद्ध, साधु और धर्मकी शरणको ही प्राप्त होना बताया है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि संघरक्षा और संघप्रभावनाके उद्देश्यसे भी छलादि असद् उपायोंका अवलम्बन करना जो प्राचीन बौद्ध तर्कग्रन्थोंमें घुस गया १. "बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्म सरणं गच्छामि, संघ सरणं गच्छामि ।" २. "चत्तारि सरणं पव्वज्जामि,अरहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वजामि, केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि ।" -चत्तारि दंडक।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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