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________________ ३४० जैनदर्शन इस एक प्रत्यक्षने जाना था। पीछे शुद्ध भूतलको जाननेवाला प्रत्यक्ष ही घटाभावको ग्रहण कर लेता है, क्योंकि घटाभाव शुद्धभूतलादि रूप ही तो है । अथवा 'यह वही भूतल है जो पहले घटसहित था' इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान भी अभावको ग्रहण कर सकता है । अनु मानके प्रकरणमें उपलब्धि और अनुपलब्धिरूप अनेक हेतुओंके उदाहरण दिये गये हैं जो अभावोंके ग्राहक होते है। यह कोई नियम नहीं है कि भावात्मक प्रमेयके लिए भावरूप प्रमाण और अभावात्मक प्रमेयके लिए अभावात्मक प्रमाण ही माना जाय; क्योंकि उड़ते हुए पत्तोंके नीचे न गिरने रूप अभावसे आकाशमें वायुका सद्भाव जाना जाता है और शुद्धभूतलग्राही प्रत्यक्षसे घटाभावका बोध तो प्रसिद्ध ही है। प्रागभावादिके स्वरूपसे तो इनकार नहीं किया जा सकता, पर वे वस्तुरूप ही है। घटका प्रागभाव मृत्पिडको छोड़कर अन्य नहीं बताया जा सकता। 'अभाव भावान्तररूप होता है, यह अनुभव सिद्ध सिद्धान्त है। अतः जब प्रत्यक्ष, प्रत्यभिज्ञान और अनुमान आदि प्रमाणोंके द्वारा ही उसका ग्रहण हो जाता है तब स्वतन्त्र अभावप्रमाण माननेकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। कथा-विचार: परार्थानुमानके प्रसंगमें कथाका अपना विशेष स्थान है। पक्ष और प्रतिपक्ष ग्रहण कर वादी और प्रतिवादीमें जो वचन-व्यवहार स्वमतके स्थापन पर्यन्त चलता है उसे कथा कहते है । न्याय-परम्परामें कथाके तीन भेद माने गये हैं-१ वाद, २ जल्प और ३ वितण्डा। तत्त्वके जिज्ञासुओं की कथाको या वीतरागकथाको वाद कहा जाता है। जय-पराजयके इच्छु १. 'भावान्तरविनिमुक्तो भावोऽत्रानुपलम्भवत् । अभावः सम्मतस्तस्य हेतोः किन्न समुद्भवः ? ॥' -उद्धृत, प्रमेयक० पृ० १६० ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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