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अनुमानप्रमाणमीमांसा
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गुरुशिष्यभाव, देन लेन आदि व्यवहार, अतीन्द्रिय चैतन्यका आकृतिविशेष आदिसे सद्भाव मानकर ही चलते है और उनके अभाव में चैतन्यका अभाव जानकर मृतक में वे व्यवहार नहीं किये जाते । तात्पर्य यह कि जिस पदार्थको हम जिन-जिन प्रमाणोंसे जानते हैं उस वस्तुका उन-उन प्रमाणोंकी निवृत्ति होने पर अवश्य ही अभाव मानना चाहिए । अतः दृश्यत्वका संकुचित अर्थ - मात्र प्रत्यक्षत्व न करके 'प्रमाणविषयत्व' करना ही उचित है और व्यवहार्य भी है।
उदाहरणादि :
यह पहले लिखा जा चुका है कि अव्युत्पन्न श्रोता के लिए उदाहरण, उपनय और निगमन इन अवयवोंको भी सार्थकता है | स्वार्थानुमानमें भी जो व्यक्ति व्याप्तिको भूल गया है, उसे व्याप्तिस्मरण के लिये कदाचित् उदाहरणका उपयोग हो भी सकता है, पर व्युत्पन्न व्यक्तिको उसकी कोई उपयोगिता नहीं है । व्याप्तिकी सम्प्रतिपत्ति अर्थात् वादी और प्रतिवादोकी समान प्रतीति जिस स्थल में हो उस स्थलको दृष्टान्त कहते है और दृष्टान्तका सम्यक् वचन उदाहरण' कहलाता है । साध्य और साधनको व्याप्ति - अविनाभावसम्बन्ध कहीं साधर्म्य अर्थात् अन्वयरूपसे गृहीत होता है और कहीं वैधर्म्य अर्थात् व्यतिरेकरूपसे । जहाँ अन्वयव्याप्ति गृहीत हो वह अन्वयदृष्टान्त तथा व्यतिरेकव्याप्ति जहाँ गृहीत हो वह व्यतिरेकदृष्टान्त है । इस दृष्टान्तका सम्यक् अर्थात् दृष्टान्तकी विधिसे कथन करना उदाहरण है । जैसे 'जो-जो घूमवाला है वह वह अग्निवाला है, जैसे कि महानस, जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ धूम भी नहीं है, जैसे कि महाहृद इस प्रकार व्याप्तिपूर्वक दृष्टान्तका कथन उदाहरण कहलाता है ।
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दृष्टान्तकी सदृशतासे पक्षमें साधनको सत्ता दिखाना उपनय है ।
१. देखो, परीक्षामुख ३।४२-४४ ।
२. परीक्षामुख ३।४५ ।