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________________ अनुमानप्रमाणमीमांसा ३३३ गुरुशिष्यभाव, देन लेन आदि व्यवहार, अतीन्द्रिय चैतन्यका आकृतिविशेष आदिसे सद्भाव मानकर ही चलते है और उनके अभाव में चैतन्यका अभाव जानकर मृतक में वे व्यवहार नहीं किये जाते । तात्पर्य यह कि जिस पदार्थको हम जिन-जिन प्रमाणोंसे जानते हैं उस वस्तुका उन-उन प्रमाणोंकी निवृत्ति होने पर अवश्य ही अभाव मानना चाहिए । अतः दृश्यत्वका संकुचित अर्थ - मात्र प्रत्यक्षत्व न करके 'प्रमाणविषयत्व' करना ही उचित है और व्यवहार्य भी है। उदाहरणादि : यह पहले लिखा जा चुका है कि अव्युत्पन्न श्रोता के लिए उदाहरण, उपनय और निगमन इन अवयवोंको भी सार्थकता है | स्वार्थानुमानमें भी जो व्यक्ति व्याप्तिको भूल गया है, उसे व्याप्तिस्मरण के लिये कदाचित् उदाहरणका उपयोग हो भी सकता है, पर व्युत्पन्न व्यक्तिको उसकी कोई उपयोगिता नहीं है । व्याप्तिकी सम्प्रतिपत्ति अर्थात् वादी और प्रतिवादोकी समान प्रतीति जिस स्थल में हो उस स्थलको दृष्टान्त कहते है और दृष्टान्तका सम्यक् वचन उदाहरण' कहलाता है । साध्य और साधनको व्याप्ति - अविनाभावसम्बन्ध कहीं साधर्म्य अर्थात् अन्वयरूपसे गृहीत होता है और कहीं वैधर्म्य अर्थात् व्यतिरेकरूपसे । जहाँ अन्वयव्याप्ति गृहीत हो वह अन्वयदृष्टान्त तथा व्यतिरेकव्याप्ति जहाँ गृहीत हो वह व्यतिरेकदृष्टान्त है । इस दृष्टान्तका सम्यक् अर्थात् दृष्टान्तकी विधिसे कथन करना उदाहरण है । जैसे 'जो-जो घूमवाला है वह वह अग्निवाला है, जैसे कि महानस, जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ धूम भी नहीं है, जैसे कि महाहृद इस प्रकार व्याप्तिपूर्वक दृष्टान्तका कथन उदाहरण कहलाता है । ' दृष्टान्तकी सदृशतासे पक्षमें साधनको सत्ता दिखाना उपनय है । १. देखो, परीक्षामुख ३।४२-४४ । २. परीक्षामुख ३।४५ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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