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जैनदर्शन प्रमाण इसलिए नहीं दिया जा सकता कि उनका एकज्ञानसंसर्गी कोई पदार्थ उपलब्ध नहीं होता। इस दृश्यताको 'उपलब्धिलक्षणप्राप्त' शब्दसे भी कहते हैं । इस तरह बौद्ध दृश्यानुपलब्धिको गमक और अदृश्यानुलब्धिको संशयहेतु मानते है । __ परन्तु जैनतार्किक 'अकलंकदेव कहते है कि दृश्यत्वका अर्थ केवल प्रत्यक्षयविषत्व ही नहीं है, किन्तु उसका अर्थ है प्रमाणविषयत्व । जो वस्तु जिस प्रमाणका विषय होती है, वह वस्तु यदि उसी प्रमाणसे उपलब्ध न हो तो उसका अभाव सिद्ध हो जाना चाहिये । उपलम्भका अर्थ प्रमाणसामन्य है । देखो, मृत शरीरमें स्वभावसे अतीन्द्रिय परचैतन्यका अभाव भी हम लोग सिद्ध करते है। यहां परचैतन्यमें प्रत्यक्षविषयत्वरूप दृश्यत्व तो नहीं है, क्योंकि परचैतन्य कभी भी हमारे प्रत्यक्ष का विषय नहीं होता। हम तो वचन, उष्णता, श्वासोच्छ्वास या आकारविशेष आदिके द्वारा शरीरमें मात्र उसका अनुमान करते है । अतः उन्हीं वचनादिके अभावसे चैतन्यका अभाव सिद्ध होना चाहिये। यदि अदृश्यानुपलब्धिको संशयहेतु मानते हैं; तो आत्माकी सत्ता भी कैसे सिद्ध की जा सकेगी ? आत्मादि अदृश्य पदार्थ अनुमानके विषय होते है। अत: यदि हम उनके साधक चिह्नोंके अभावमें उनकी अनुमानसे भी उपलब्धि न कर सकें तो हो उनका अभाव मानना चाहिए । हाँ, जिन पदार्थोको हम किसी भी प्रमाणसे नहीं जान सकते, उनका अभाव हम अनुपलब्धिसे नहीं कर सकते । यदि परशरीरमें चैतन्यका अभाव हम अनुपलब्धिसे न जान सकें और संशय ही बना रहे, तो मृतशरीरका दाह करना कठिन हो जायगा और दाह करनेवालोंको सन्देह में पातकी बनना पड़ेगा। संसारके समस्त
१. 'अदृश्यानुपलम्भादभावासिद्धिरित्ययुक्तं परचैतन्यनिवृत्तावारेकापत्तेः, संस्कर्तृणां पातकित्वप्रसङ्गात् वहुलमप्रत्यक्षस्यापि रोगादेविनिवृत्तिनिर्णयात् ।'
अष्टश०, अष्टसह० पृ० ५२ ।