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________________ ३३४ जैनदर्शन जैसे 'उसी तरह यह भी धूमवाला है।' साधनका अनुवाद करके पक्षमें साध्यका नियम बताना निगमन है। जैसे 'इसलिये अग्निवाला है।' संक्षेपमे हेतुके उससंहारको उपनय कहते है और प्रतिज्ञाके उपसंहारको निगमन'। हेतुका कथन कहीं तथोपपत्ति ( साध्यके होने पर ही साधनका होना), अन्वय या साधर्म्यरूपसे होता है और कहीं अन्यथानुपपत्ति ( साध्यके अभाव मे हेतुका नहीं ही होना ), व्यतिरेक या वैधर्म्यरूपसे होता है । दोनोंका प्रयोग करनेसे पुनरुक्ति दूपण आता है । हेतुका प्रयोग व्याप्तिग्रहणके अनुसार ही होता है। अतः हेतुके प्रयोगमात्रसे विद्वान् व्याप्तिका स्मरण या अवधारण कर लेते है। पक्षका प्रयोग तो इसलिये आवश्यक है कि साध्य और साधनका आधार अतिस्पष्टरूपसे सूचित हो जाय । व्याप्तिके प्रसंगसे व्याप्य और व्यापकका लक्षण भी जान लेना आवश्यक है। व्याप्य और व्यापक: ___ व्याप्तिक्रियाका जो कर्म होता है अर्थात् जो व्याप्त होता है वह व्याप्य है और जो व्याप्तिक्रियाका कर्ता होता है अर्थात् जो व्याप्त करता है वह व्यापक होता है। जैसे अग्नि धुआंको व्याप्त करती है अर्थात् जहाँ भी धूम होगा वहाँ अग्नि अवश्य मिलेगी, पर धुआँ अग्निको व्याप्त नहीं करता, कारण यह है कि निर्धूम भी अग्नि पाई जाती है । हम यह नहीं कह सकते कि 'जहाँ भी अग्नि है वहाँ धूम अवश्य ही होगा', क्योंकि अग्निके अंगारोंमें धुंआ नहीं पाया जाता। १. परीक्षामुख ३।४६ । २. परीक्षामुख ३८९-९३ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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