________________
अनुमानप्रमाणमीमांसा
३२७ जिस कारणके सम्बन्धमें इनका निश्चय करना शक्य है, उस कारणको हेतु स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर हेतु : ____ इसी तरह पूर्वचर और उत्तरचर हेतुओंमें न तो तादात्म्य सम्बन्ध पाया जाता है और न तदुत्पत्ति हो; क्योंकि कालका व्यवधान रहने पर इन दोनों सम्बन्धोंकी सम्भावना नहीं है । अतः इन्हें भी पृथक् हेतु स्वीकार करना चाहिये । आज हुए अपशकुनको कालान्तरमें होनेवाले मरणका कार्य मानना तथा अतीत जागृत अवस्थाके ज्ञानको प्रबोधकालीन ज्ञानके प्रति कारण मानना उचित नहीं है; क्योंकि कार्यकी उत्पत्ति कारण के व्यापारके अधीन होती है। जो कारण अतीत और अनुत्पन्न होनेके कारण स्वयं असत् हैं, अत एव व्यापारशन्य हैं; उनसे कार्योत्पत्तिकी सम्भावना कैसे की जा सकती है ? ___ इसी तरह सहचारी पदार्थ एकसाथ उत्पन्न होते हैं, अतः वे परस्पर कार्यकारणभूत नहीं कहे जा सकते और एक अपनी स्थितिमें दूसरेको अपेक्षा नहीं करता, अतः उनमें परस्पर तादात्म्य भी नहीं माना जा सकता । इसलिये सहचर हेतुको भी पृथक् मानना ही चाहिये ।
हेतुके भेद :
विधिसाधक उपलब्धिको अविरुद्धोपलब्धि और प्रतिषेध-साधक उपलब्धिको विरुद्धोपलब्धि कहते हैं । इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:
(१) अविरुद्धव्याप्योपलब्धि-शब्द परिणामी है, क्योंकि वह कृतक है।
१. देखो, लवीय० श्लो० १४ । परीक्षामुख ३।५६-५८ । २. परीक्षामुख ३१५९ । ३. परीक्षामुख ३१६०-६५ ।