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________________ ३२८ जैनदर्शन ( २ ) अविरुद्धकार्योपलब्धि-इस प्राणीमे बुद्धि है, क्योंकि वचन आदि देग्वे जाते है। ( ३ ) अविरुद्धकारणोपलब्धि-यहां छाया है, क्योंकि छत्र है। ( ४ ) अविरुद्ध पूर्वचरोपलब्धि-एक महूतके बाद शकट ( रोहिणी ) का उदय होगा, क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय हो रहा है । (५) अविरुद्धोत्तरचरोपलब्धि--एक मुहूर्त पहले भरणीका उदय हो चुका है, क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय हो रहा है । ( ६ ) अविरुद्धसहचरोपलब्धि-इस विजौरेमें रूप है, क्योंकि रस पाया जाता है। इनमें अविरुद्धव्यापकोपलब्धि भेद इसलिये नहीं बताया कि व्यापक व्याप्यका ज्ञान नहीं कराता, क्योंकि वह उसके अभावमें भी पाया जाता है। प्रतिषेधको सिद्ध करनेवाली छह विरुद्धोपलब्धियाँ'-- (१) विरुद्धव्याप्योपलब्धि-यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता पायी जाती है। (२) विरुद्धकार्योपलब्धि-यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि धूप पाया जाता है। (३ ) विरुद्धकारणोपलब्धि-इस प्राणीमे सुख नहीं है, क्योंकि इसके हृदयमें शल्य है। (४) विरुद्धपूर्वचरोपलब्धि-एक मुहूर्तके बाद रोहिणीका उदय नहीं होगा, क्योंकि इस समय रेवतीका उदय हो रहा है। (५) विरुद्धउत्तरचरोपलब्धि-एक मुहूर्त पहले भरणीका उदय नहीं हुआ, क्योंकि इस समय पुष्यका उदय हो रहा है । १. परीक्षामुख ३१६६-७२ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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