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________________ ३२६ जैनदर्शन साधक है । वैशेषिक संयोग और समवायको स्वतन्त्र सम्बन्ध मानते है, अतः एतन्निमित्तक संयोगी और समवायी ये दो हेतु उन्होंने स्वतन्त्र माने है; परन्तु इस प्रकारके भेद सहभावमूलक अविनाभावमें संगृहीत हो जाते है । वे या तो सहचरहेतुमे या स्वभावहेतु में अन्तर्भूत हो जाते है । कारणहेतुका समर्थन : ५ बौद्ध कारणहेतुको स्वीकार नहीं करते है। उनका कहना है कि 'कारण अवश्य ही कार्यको उत्पन्न करे' ऐसा नियम नहीं है । जो अन्तिम क्षणप्राप्त कारण नियमसे कार्यका उत्पादक है, उसके दूसरे क्षणमें ही कार्यका प्रत्यक्ष हो जाने वाला है, अतः उसका अनुमान निरर्थक है । किन्तु अँधेरे में किसी फलके रसको चखकर तत्समानकालीन रूपका अनुमान कारणसे कार्यका अनुमान ही तो हैं, क्योंकि वर्तमान रसको पूर्व रस उपादानभावसे तथा पूर्वरूप निमित्तभाव से उत्पन्न करता है और पूर्वरूप अपने उत्तररूपको पैदा करके ही रसमें निमित्त बनता है । अतः रसको चखकर उसकी एकसामग्रीका अनुमान होता है । फिर एकसामग्री के अनुमान से जो उत्तर रूपका अनुमान किया जाता है वह कारणसे कार्यका ही अनुमान है । इसे स्वभावहेतुमें अन्तर्भूत नहीं किया जा सकता । कारणसे कार्यके अनुमानमें दो शर्त आवश्यक है । एक तो उस कारणकी शक्तिका किसी प्रतिबन्धकसे प्रतिरोध न हो और दूसरे सामग्रीकी विकलता न हो । इन दो बातों का निश्चय होने पर ही कारण कार्यका अव्यभिचारी अनुमान करा सकता है। जहाँ इनका निश्चय न हो, वहाँ न सही; पर १. ' न च कारणानि अवश्यं कार्यवन्ति भवन्ति ।' न्यायबि० २।४९ | २. 'रसादेकसामग्र्यनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किञ्चित् कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबन्धकारणान्तरावैकल्ये ।' - परीक्षामुख ३ ५५ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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