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________________ अनुमानप्रमाणमीमांसा ३२५ ( ३-११-२३ ) अभूत-भूतका, भूत-अभूतका और भूत-भूतका इस प्रकार तीन हेतुओंका वर्णन है। बौद्ध' स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि इस तरह तीन प्रकारके हेतु मानते है। कार्यहेतुका अपने साध्यके साथ तदुत्पत्ति सम्बन्ध होता है, स्वभावहेतुका तादात्म्य होता है और अनुपलब्धियोंमें भी तादात्म्यसम्बन्ध ही विवक्षित है। जैन तार्किकपरम्परामें अविनाभावको केवल तादात्म्य और तदुत्पत्तिमें ही नहीं बांधा है, किन्तु उसका व्यापक क्षेत्र निश्चित किया है। अविनाभाव, सहभाव और क्रमभावमूलक होता है। सहभाव तादात्म्यप्रयुक्त भी हो सकता है और तादात्म्यके बिना भी। जैसे कि तराजूके एक पलड़ेका ऊपरको जाना और दूसरेका नीचेकी तरफ झुकना, इन दोनोंमें तादात्म्य न होकर भी सहभाव है । क्रमभाव कार्य-कारणभावमूलक भी होता है और कार्यकारणभावके बिना भी। जैसे कि कृत्तिकोदय और उसके एक मुहूर्तके बाद उदित होनेवाले शकटोदयमें परस्पर कार्यकारणभाव न होने पर भी नियत क्रमभाव है। ___ अविनाभावके इसी व्यापक स्वरूपको आधार बनाकर जैन परम्परामें हेतुके स्वभाव, व्यापक, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर ये भेद किये है । हेतुके सामान्यतया दो भेद भी होते हैं -एक उपलब्धिरूप और दूसरा अनुपलब्धिरूप । उपलब्धि, विधि और प्रतिषेध दोनोंको सिद्ध करती है । इसी तरह अनुपलब्धि भी। बौद्ध कार्य और स्वभाव हेतुको केवल विधिसाधक और अनुपलब्धि हेतुको मात्र प्रतिषेधसाधक मानते है, किन्तु आगे दिये जानेवाले उदाहरणोंसे यह स्पष्ट हो जायगा कि अनुपलब्धि और उपलब्धि दोनों ही हेतु विधि और प्रतिषेध दोनोंके १. न्यायबिन्दु २।१२। २. परीक्षामुख ३१५४। ३. परीक्षामुख ३५२। ४. 'अत्र द्वौ वस्तुसाधनौ, एकः प्रतिषेधहेतुः।' -न्यायबि० २।१९ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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