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जैनदर्शन
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'जीवित शरीर आत्मासे युक्त है, क्योंकि उसमें प्राणादिमत्त्व - श्वासोच्छ्वास आदि पाये जाते हैं', यहाँ जीवित शरीर पक्ष है, सात्मकत्व साध्य है और प्राणादिमत्त्व हेतु है । यह पक्षभूत जोवित शरीर में पाया जाता है और विपक्षभूत पत्थर आदिसे व्यावृत्त है, अतः इसमें पक्षधर्मत्व और विपक्षव्यावृत्ति तो पाई जाती है; किन्तु सपक्षसत्त्व नहीं है, क्योंकि जगत् के समस्त चेतन पदार्थोंका पक्षमें और अचेतन पदार्थोंका विपक्ष में अन्तर्भाव हो गया है, सपक्ष कोई बचता ही नहीं है । इस केवलव्यतिरेकी हेतु में सपक्ष सत्त्व के सिवाय अन्य चार रूप पाये जाते हैं । स्वयं नैयायिकों ने केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी हेतुओंमें चार-चार रूप स्वीकार करके चतुर्लक्षणको भी सद्हेतु माना है । इस तरह पञ्चरूपता इन तुओं में अपने आप अव्याप्त सिद्ध हो जाती है ।
केवल एक अविनाभाव ही ऐसा है, जो समस्त सद्हेतुओंमें अनुपचरितरूपसे पाया जाता है और किसी भी हेत्वाभासमें इसकी सम्भावना नहीं की जा सकती । इस लिए जैनदर्शनने हेतुको 'अन्यथानुपपत्ति' या 'अविनाभाव' रूपसे एकलक्षणवाला ही माना है ।
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हेतुके प्रकार :
वैशेषिक सूत्रमें एक जगह ( ६।२1१ ) कार्य, कारण, संयोगी, समवायी और विरोधी इन पाँच प्रकारके लिंगोंका निर्देश है । अन्यत्र
१. ' यद्यप्यविनाभावः पञ्चसु चतुषु वा रूपेषु लिङ्गस्य समाप्यते ।'
-न्यायवा० ता० टी० पृ० १७८ । “केवलान्वयसाधको हेतुः केवलान्वयी । अस्य च पक्ष सत्त्वसपचसत्त्वाबाधितासत्प्रतिपक्षितत्वानि चत्वारि रूपाणि गमकत्वौपयिकानि । अन्वयव्यतिरेकिणस्तु हेतोर्विपक्षासत्त्वेन सह पञ्च । केवलव्यतिरेकिणः सपक्षसत्वव्यतिरेकेण चत्वारि ।”
- वैशे ० २. ‘अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं तत्र साधनम् ।' -त० श्लो० १|१३|१२१ ।
० उप० पृ० ९७ ।