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________________ ३१९ अनुमानप्रमाणमीमांसा पक्षमें हेतुका उपसंहार उपनय है और हेतुपूर्वक पक्षका वचन निगमन है । ये दोनों अवयव स्वतन्त्रभावसे किसोकी सिद्धि नहीं करते । अतः लाघव, आवश्यकता और उपयोगिता सभी प्रकारसे प्रतिज्ञा और हेतु इन दोनों अवयवोंकी ही परार्थानुमानमें सार्थकता है । वादाधिकारी विद्वान् इनके प्रयोगसे ही उदाहरण आदिसे समझाये जानेवाले अर्थको स्वतः ही समझ सकते है। हेतुके स्वरूपकी मीमांसा : हेतुका स्वरूप भी विभिन्न वादियोंने अनेक प्रकारसे माना है। नैयायिक' पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, अबाधितविपयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व इस प्रकार पंचरूपवाला हेतु मानते है । हेतुका पक्षमें रहना, समस्त सपनोंमें या किसी एक सपक्ष में रहना, किसी भी विपक्ष में नहीं पाया जाना, प्रत्यक्षादिसे साध्यका बाधित नहीं होना और तुल्यबलवाले किसी प्रतिपक्षी हेतुका नहीं होना ये पाँच बातें प्रत्येक सद्धेतुके लिए नितान्त आवश्यक है। इसका समर्थन उद्योतकरके न्यायवार्तिक ( ११११५ ) में देखा जाता है । प्रशस्तपादभाष्य में हेतुके रूप्यका ही निर्देश है। __रूप्यवादी बौद्ध त्रैरूप्यको स्वीकार करके अबाधितविषयत्वको पक्षके लक्षणसे ही अनुगत कर लेते है; क्योंकि पक्षके लक्षणमें 'प्रत्यक्षाद्यनिराकृत' पद दिया गया है। अपने साध्यके साथ निश्चित रूप्यवाले हेतुमें समवलवाले किसी प्रतिपक्षी हेतुकी सम्भावना ही नहीं की जा सकती, अतः असत्प्रतिपक्षत्व अनावश्यक हो जाता है। इस तरह वे तीन रूपोंको हेतुका अत्यन्त आवश्यक स्वरूप मानते है और इसी त्रिरूप हेतुको साधनाङ्ग कहते है और इनकी न्यूनताको असाधनाङ्ग वचन कहकर निग्रह १. देखी न्यायवा० ता० टी० ११११५ । २. प्रश० कन्दली पृ० ३०० ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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