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जैनदर्शन जाता है ? व्याप्तिस्मरणके लिए भी उदाहरणकी सार्थकता नहीं है; क्योंकि अविनाभावी हेतुके प्रयोगमात्रसे ही व्याप्तिका स्मरण हो जाता है। सबसे खास बात तो यह है कि विभिन्न मतवादी तत्त्वका स्वरूप विभिन्नरूपसे स्वीकार करते हैं। बौद्ध घड़ेको क्षणिक कहते हैं, जैन कथञ्चित् क्षणिक और नैयायिक अवयवीको अनित्य और परमाणुओंको नित्य । ऐसी दशामें किसी सर्वसम्मत दृष्टान्तका मिलना कठिन है । अतः जैन ताकिकोंने इसके झगड़ेको ही हटा दिया है। दूसरी बात यह है कि दष्टान्तमें व्याप्तिका ग्रहण करना अनिवार्य भी नहीं है। क्योंकि जब समस्त वस्तुओंको पक्ष बना लिया जाता है तब किसी दृष्टान्तका मिलना असम्भव हो जाता है। अन्ततः पक्षमें ही साध्य और साधनको व्याप्ति विपक्ष में वाधक प्रमाण देखकर सिद्ध कर ली जाती है। इसलिए भी दृष्टान्त निरर्थक हो जाता है और वादकथामें अव्यवहार्य भी। हाँ, बालकोंकी व्युत्पत्तिके लिए उसकी उपयोगितासे कोई इनकार नहीं कर सकता।
उपनय और निगमन तो केवल उपसंहार-वाक्य हैं, जिनकी अपने में कोई उपयोगिता नहीं है। धर्मोमें हेतु और साध्यके कथन मात्रसे ही उनकी सत्ता सिद्ध है। उनमें कोई संशय नहीं रहता। ___ वादिदेवसूरि ( स्याद्वादरत्नाकर पृ० ५४८ ) ने विशिष्ट अधिकारीके लिये बौद्धोंकी तरह केवल एक हेतुके प्रयोग करनेकी भी सम्मति प्रकट की है । परन्तु बौद्ध तो त्रिरूप हेतुके समर्थनमें पक्षधर्मत्वके बहाने प्रतिज्ञाके प्रतिपाद्य अर्थको कह जाते हैं, पर जैन तो त्रैरूप्य नहीं मानते, वे तो केवल अविनाभावको ही हेतुका स्वरूप मानते हैं, तब वे केवल हेतुका प्रयोग करके कैसे प्रतिज्ञाको गम्य बता सकेंगे ? अतः अनुमानप्रयोगकी समग्रताके लिए अविनाभावी हेतुवादी जैनको प्रतिज्ञा अपने शब्दोंसे कहनी ही चाहिए, अन्यथा साध्यधर्मके अधारका सन्देह कैसे हटेगा ? अतः जैनके मतसे सीधा अनुमानवाक्य इस प्रकारका होता है-'पर्वत अग्नि वाला है, धूमवाला होनेसे' 'सब अनेकान्तात्मक है, क्योंकि सत् हैं।'