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जैनदर्शन स्थानमें शामिल करते है। पक्षधर्मत्व असिद्धत्व दोषका परिहार करनेके लिए है, सपनसत्त्व विरुद्धत्वका निराकरण करनेके लिए तथा विपक्षव्यावृत्ति अनैकान्तिक दोपकी व्यावृत्तिके लिए है।
जैन दार्शनिकोंने प्रथमसे ही अन्यथानुपपत्ति या अविनाभावको ही हेतुके प्राणरूपमे पकड़ा है । सपक्षसत्त्व इमलिए आवश्यक नहीं है कि एक तो समस्त पक्षोंमें हेतुका होना अनिवार्य नहीं है। दूसरे सपक्षमें रहने या न रहनेसे हेतृतामें कोई अन्तर नहीं आता। केवलव्यतिरेको हेतू सपक्षमें नहीं रहता, फिर भी सद्धेतु है । 'हेनुका साध्यके अभावमें नहीं ही पाया जाना' यह अन्यथानुपपत्ति, अन्य सब रूपोंकी व्यर्थता सिद्ध कर देती है। पक्षधर्मत्व भी आवश्यक नहीं है; क्योंकि अनेक हेतु ऐसे हैं जो पक्षमें नहीं पाये जाते, फिर भी अपने अविनाभावो साध्यका ज्ञान कराते हैं । जैसे 'रोहिणी नक्षत्र एक महर्तके वाद उदित होगा, क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय है।' यहाँ कृत्तिकाके उदय और एक मुहूर्त बाद होनेवाले शकटोदय (रोहिणीके उदय ) में अविनाभाव है, वह अवश्य ही होगा; परन्तु कृत्तिकाका उदय रोहिणी नामक पक्षमें नहीं पाया जाता। अतः पक्षधर्मत्व ऐसा रूप नहीं है जो हेतुकी हेतुताके लिये अनिवार्य हो । काल और आकाशको पक्ष बनाकर कृत्तिका और रोहिणीका सम्बन्ध बैठाना तो बुद्धिका अतिप्रसंग है । अतः केवल नियमवाली विपक्षव्यावृत्ति हो हेतुकी आत्मा है, इसके अभावमें वह हेतु ही नहीं रह सकता । सपक्षसत्त्व तो इसलिये माना जाता है कि हेतुका अविनाभाव किसी दृष्टान्तमें ग्रहण करना चाहिये या दिखाना चाहिए। परन्तु हेतु बहिर्व्याप्ति ( दृष्टान्तमें साध्यसाधनको
१. हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः । ____ असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः ॥'-प्रमाणवा० ३।१४ । २. देखो, प्रमाणवा० स्ववृ० टी० ३।१ । ३. प्रमाणसं० पृ० १०४ ।