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जैनदर्शन जिस प्रकार अज्ञात भी चक्षु अपनी योग्यतासे रूपज्ञान उत्पन्न कर देती है उस प्रकार साधन अज्ञात रहकर साध्यज्ञान नहीं करा सकता, किन्तु उसका साधनरूपसे ज्ञान होना आवश्यक है। साधनरूपसे ज्ञानका अर्थ है-साध्यके साथ उसके अविनाभावका निश्चय ! अनिश्चित साधन मात्र अपने स्वरूप या योग्यतासे साध्यज्ञान नहीं करा सकता, अतः उसका अविनाभाव निश्चित ही होना चाहिए। यह निश्चय अनुमितिके समय अपेक्षित होता है । अज्ञायमान धूम तो अग्निका ज्ञान करा ही नहीं सकता, अन्यथा सुप्त और मूच्छित आदिको या जिनने आजतक धूमका ज्ञान ही नहीं किया है, उन्हें भी अग्निज्ञान हो जाना चाहिए।
अविनाभाव तादात्म्य और तदुत्पत्तिसे नियन्त्रित नहीं :
अविनाभाव ही अनुमानकी मूल धुरा है। सहभावनियम और क्रमभावनियमको अविनाभाव कहते है । सहभावी रूप, रस आदि तथा वृक्ष
और शिशपा आदि व्याप्यव्यापकभूत पदार्थोमें सहभावनियम होता है। नियत पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती कृत्तिकोदय और शकटोदयमें तथा कार्यकारणभूत अग्नि और धूम आदिमें क्रमभावनियम होता है । अविनाभावको केवल तादात्म्य और तदुत्पत्ति ( कार्यकारणभाव ) से ही नियन्त्रित नहीं कर सकते। जिनमें परस्पर तादत्म्य नहीं है ऐसे रूपसे रसका अनुमान होता है तथा जिनमें परस्पर कार्यकारणसम्बन्ध नहीं है ऐसे कृत्तिकोदयको देखकर एक मूहूर्त बाद होने वाले शकटोदयका अनुमान किया जाता है । तात्पर्य यह कि जिनमें परस्पर तादात्म्य या तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं भी है, उन पदार्थोंमें नियत पूर्वोत्तरभाव यानी क्रमभाव होनेपर तथा नियत सहभाव होनेपर अनुमान हो सकता है। अतः अविनाभाव तादात्म्य और तदुत्पत्ति तक ही सीमित नहीं है ।
१. “सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः।" - परीक्षामुख ३६१६ ।