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________________ अनुमानप्रमाणमीमांसा ३११ साधन : जिसका साध्यके साथ अविनाभाव निश्चित है, उसे साधन' कहते हैं। अविनाभाव, अन्यथानुपपत्ति, व्याप्ति ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं और 'अन्यथानुपपत्ति रूपसे निश्चित होना' यही एकमात्र साधनका लक्षण हो सकता है। साध्य: शक्य, अभिप्रेत और अप्रसिद्धको साध्य कहते है । जो प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे अबाधित होनेके कारण सिद्ध करनेके योग्य है, वह शक्य है । वादीको इष्ट होनेसे अभिप्रेत है और संदेहादियुक्त होने के कारण असिद्ध है, वही वस्तु साध्य होती है। बौद्ध परम्परामें भी ईप्सित और इष्ट, प्रत्यक्षादि अविरुद्ध और प्रत्यक्षादि अनिराकृत ये विशेषण अभिप्रेत और शक्यके स्थानमें प्रयुक्त हुए है। अप्रसिद्ध या असिद्ध विशेषण तो माध्य शब्दके अर्थसे ही फलित होता है । साध्यका अर्थ है-मिद्ध करने योग्य अर्थात् असिद्ध । सिद्ध पदार्थका अनुमान व्यर्थ है । अनिष्ट तथा प्रत्यक्षादिबाधित पदार्थ साध्य नहीं हो सकते । केवल सिसाधयिपित ( जिसके सिद्ध करनेकी इच्छा है ) अर्थको भी साध्य नहीं कह सकते; क्योंकि भ्रमवश अनिष्ट और बाधित पदार्थ भी सिसाधयिषा ( माधनेकी इच्छा ) के विषय बनाये जा सकते है, ऐसे पदार्थ माध्याभास है, साध्य नहीं। अमिद्ध विशेषण प्रतिवादीकी अपेक्षासे है और इष्ट विशेषण वादीकी दृष्टिसे । - १. 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम् ।'-न्यायावतार श्लो० २२ । 'साधनं प्रकृताभावोऽनुपपन्नं ।'-प्रमाणसं० पृ० १०२ । २. 'साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धम् ।'-न्यायवि० श्लो० १७२ । ३. 'स्वरूपेणेव स्वयममिष्टोऽनिराकृतः पक्ष इति ।'-न्यायवि० पृ० ७९ । 'न्यायमुखप्रकरणे तु स्वयं साध्यत्वेनेप्सितः पक्षोऽविरुद्धार्थोऽनिराकृत इति पाठात् ।' -प्रमाणवातिकालं० पृ० ५१० ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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