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________________ अनुमानप्रमाणमीमांसा सादृश्यप्रत्यभिज्ञान आदिकी सहायतासे जो एक मानस विकल्प होता है, वही इस अविनाभावको ग्रहण करता है । इसीका नाम तक है। ४. अनुमान : 'साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते है । लिङ्गग्रहण और व्याप्तिस्मरणके अनु-पीछे होनेवाला, मान-ज्ञान अनुमान कहलाता है। यह ज्ञान अविशद होनेसे परोक्ष है, पर अपने विषयमें अविसंवादी है और संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि समारोपोंका निराकरण करनेके कारण प्रमाण है। साधनसे साध्यका नियत ज्ञान अविनाभावके बलसे ही होता है । सर्वप्रथम साधनको देखकर पूर्वगृहीत अविनाभावका स्मरण होता है, फिर जिस साधनसे साध्यको व्याप्ति ग्रहण की है, उस साधनके साथ वर्तमान साधनका सादृश्यप्रत्यभिज्ञान किया जाता है, तब साध्यका अनुमान होता है । यह मानस ज्ञान है । लिंगपरामर्श अनुमितिका करण नहीं: साध्यका ज्ञान ही साध्यसम्बन्धी अज्ञानको निवृत्ति करनेके कारण अनुमितिमें करण हो सकता है और वही अनुमान कहा जा सकता है, नयायिक आदिके द्वारा माना गया लिंगपरामर्ग नहीं; क्योंकि लिंगपरामर्शमें व्याप्तिका स्मरण और पक्षधर्मताज्ञान होता है अर्थात् 'धूम साधन अग्नि साध्यसे व्याप्त है और वह पर्वतमें है' इतना ज्ञान होता है । यह ज्ञान केवल साधन-सम्बन्धी अज्ञानको हटाता है, साध्यके अज्ञानको नहीं । अतः यह अनुमानको सामग्री तो हो सकता है, स्वयं अनुमान नहीं। अनुमितिका अर्थ है अनुमेय-सम्बन्धी अज्ञानको हटाकर अनुमेयार्थका ज्ञान । सो इसमें साधकतम करण तो साक्षात् साध्यज्ञान ही हो सकता है । १. “साधनात् साध्यविज्ञानमनुमान..."-न्यायवि० श्लो० १६७ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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