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जैनदर्शन
व्याप्तिज्ञानमें 'धुओं अग्निसे ही उत्पन्न होता है, अग्निके अभावमें कभी नहीं होता' इस प्रकारका अविनाभावी कार्यकारणभाव गृहीत किया जाता है, जिसका ग्रहण प्रत्यक्षसे असम्भव है। अत: साध्य-साधनव्यक्तियोंका प्रत्यक्ष या किसी भी प्रमाणसे ज्ञान, स्मरण, सादृश्यप्रत्यभिज्ञान आदि सामग्रीके बाद तो सर्वोपसंहारी व्याप्तिज्ञान होता है, वह अपने विषयमें संवादक है और संशय, विपर्यय आदि ममारोपोंका व्यवच्छेदक होनेसे प्रमाण है।
व्याप्तिका स्वरूप:
अविनाभावसम्बन्धको व्याप्ति कहते हैं। यद्यपि सम्बन्ध द्वयनिष्ठ होता है, पर वस्तुतः वह सम्बन्धियोंकी अवस्थाविशेष ही है । सम्बन्धियोंको छोड़कर सम्बन्ध कोई पृथक् वस्तु नहीं है। उसका वर्णन या व्यवहार अवश्य दोके बिना नहीं हो सकता, पर स्वरूप प्रत्येक पदार्थको पर्यायसे भिन्न नहीं पाया जाता। इसी तरह अविनाभाव या व्याप्ति उन-उन पदार्थों का स्वरूप ही है, जिनमें यह बतलाया जाता है। साध्य और साधनभूत पदार्थोंका वह धर्म व्याप्ति कहलाता है, जिसके ज्ञान और स्मरणसे अनुमानकी भूमिका तैयार होती है । 'साध्यके बिना साधनका न होना ओर साध्यके होनेपर ही होना' ये दोनों धर्म एक प्रकार से साधननिष्ठ ही हैं । इसी तरह 'साधनके होनेपर साध्यका होना ही' यह साध्यका धर्म है । साधनके होनेपर साध्यका होना ही अन्वय कहलाता है और साध्यके अभावमें साधनका न होना ही व्यतिरेक कहलाता है । व्याप्ति या अविनाभाव इन दोनोंरूप होता है । यद्यपि अविनाभाव (बिना–साध्य के अभाव में, अ-नहीं, भाव-होना) का शब्दार्थ व्यतिरेकव्याप्ति तक ही सोमित लगता है, परन्तु साध्यके बिना नहीं होनेका अर्थ है, साध्यके होने पर ही होना । यह अविनाभाव रूपादि गुणोंकी तरह इन्द्रियग्राह्य नहीं होता । किन्तु साध्य और साधनभूत पदार्थोके ज्ञान करनेके बाद स्मरण,