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तर्कप्रमाणमीमांसा
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का ग्रहण तो इसलिए नहीं हो सकता कि स्वयं अनुमानकी उत्पत्ति ही व्याप्ति के अधीन है । इसे सम्बन्धग्राही प्रत्यक्षका फल कहकर भी अप्रमाण नहीं कहा जा सकता; क्योंकि एक तो प्रत्यक्ष कार्य और कारणभूत वस्तुको ही जानता है, उनके कार्यकारणसम्बन्धको नहीं । दूसरे, किसी ज्ञानका फल होना प्रमाणतामे बाधक भी नहीं है । जिस तरह विशेषणज्ञान सन्निकर्षक फल होकर भी विशेष्यज्ञानरूपी अन्य फलका जनक होनेसे प्रमाण है, उसी तरह तर्क भी अनुमानज्ञानका कारण होनेसे या हान, उपादान और उपेक्षाबुद्धि रूपी फलका जनक होनेसे प्रमाण माना जाना चाहिये । प्रत्येक ज्ञान अपने पूर्व ज्ञानका फल होकर भी उत्तरज्ञानकी अपेक्षा प्रमाण हो सकता है। तर्ककी प्रमाणता में सन्देह करनेपर निस्सन्देह अनुमान कैसे उत्पन्न हो सकेगा ? जिस प्रकार अनुमान एक विकल्प होकर भी प्रमाण है, उसी तरह तर्कके भी विकल्पात्मक होनेसे प्रमाण होनेमें बाधा नहीं आनी चाहिये । जिस व्याप्तिज्ञानके बलपर सुदृढ़ अनुमानकी इमारत खड़ी की जा रही है, उस व्याप्तिज्ञानको अप्रमाण कहना या प्रमाणसे बहिर्भूत रखना बुद्धिमानी की बात नहीं है ।
योगिप्रत्यक्षके द्वारा व्याप्तिग्रहण करनेकी बात तो इसलिए निरर्थक है कि जो योगी है, उसे व्याप्तिग्रहण करनेका कोई प्रयोजन ही नहीं है । वह तो प्रत्यक्षसे ही समस्त साध्य-साधन पदार्थोंको जान लेता है । फिर योगिप्रत्यक्ष भी निर्विकल्पक होनेसे अविचारक है । अतः हम सब अल्पज्ञानियोंको अविशद पर अविसंवादी व्याप्तिज्ञान करानेवाला तर्क प्रमाण हो है ।
सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्तिसे अग्नित्वेन समस्त अग्नियोंका और धूमत्वेन समस्त धूमोंका ज्ञान तो हो सकता है, पर वह ज्ञान सामने दिखनेवाले अग्नि और धूमकी तरह स्पष्ट और प्रत्यक्ष नहीं है, और केवल समस्त अग्नियों और समस्त धूमोंका ज्ञान कर लेना हो तो व्याप्तिज्ञान नहीं है, किन्तु