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जैनदर्शन का अनुग्राहक होता है । तात्पर्य यह कि न्यायपरम्परामें तर्क प्रमाणोंमें संगृहीत न होकर भी अप्रमाण नहीं है। उसका उपयोग व्याप्तिनिर्णयमें होने वाली व्यभिचारशंकाओंको हटाकर उसके मार्गको निष्कंटक कर देना है । वह व्याप्तिज्ञानमें बाधक और अप्रयोजकत्वशंकाको भी हटाता है। इस तरह तर्कके उपयोग और कार्यक्षेत्रमें प्रायः किसीको विवाद नहीं है, पर उसे प्रमाणपद देनमें न्यायपरंपराको संकोच है ।
बौद्ध' तकरूप विकल्पज्ञानको व्याप्तिका ग्राहक मानते हैं, किन्तु चूँकि वह प्रत्यक्षपृष्ठभावी है और प्रत्यक्षके द्वारा गृहीत अर्थको विषय करनेवाला एक विकल्प है, अतः प्रमाण नहीं है। इस तरह वे इसे स्पष्ट रूपसे अप्रमाण कहते हैं।
अकलंकदेवने अपने विषयमें अविसंवादी होनेके कारण इसे स्वयं प्रमाण माना है। जो स्वयं प्रमाण नहीं है वह प्रमाणोंका अनुग्रह कैसे कर सकता है ? अप्रमाणसे न तो प्रमाणके विषयका विवेचन हो सकता है और न परिशोधन ही । जिस तर्कमें विसंवाद देखा जाय उस तर्काभासको हम अप्रमाण कह सकते हैं, पर इतने मात्रसे अविसंवादी तर्कको भी प्रमाणसे बहिर्भूत नही रखा जा सकता। 'संसारमें जितने भी धुआँ हैं वे सब अग्निजन्य हैं, अनग्निजन्य कभी नहीं हो सकते ।' इतना लम्बा व्यापार न तो अविचारक इन्द्रियप्रत्यक्ष ही कर सकता है और न सुखादिसंवेदक मानसप्रत्यक्ष ही। इन्द्रियप्रत्यक्षका क्षेत्र नियत और वर्तमान है। चूंकि मानसप्रत्यक्ष विशद है, और उपयुक्त सर्वोपसंहारी व्याप्तिज्ञान अविशद है, अतः वह मानसप्रत्यक्षमें अन्तर्भूत नहीं हो सकता । अनुमानसे व्याप्ति
१. 'देशकालव्यक्तिव्याप्त्या च व्याप्तिरुच्यते, यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निरिति । प्रत्यक्षपृष्ठश्च विकल्पो न प्रमाणं प्रमाणव्यापारानुकारी त्वसाविष्यते।'
--प्र० वा० मनोरथ० पृ० ७ । २. लघी० स्व० श्लो० ११, १२ ।