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________________ प्रत्यभिज्ञानप्रमाणमीमांसा २९९ इत्यादि ज्ञान उत्पन्न होते हैं, वे सब भी प्रत्यभिज्ञान ही हैं। तात्पर्य यह कि दर्शन और स्मरणको निमित्त बनाकर जितने भी एकत्वादि विषयक मानसिक संकलन होते हैं, वे सभी प्रत्यभिज्ञान है । ये सब अपने विषयमें अविसंवादी और समारोपके व्यवच्छेदक होनेसे प्रमाण है। सः और अयम्को दो ज्ञान माननेवाले बौद्धका खंडन : बौद्ध पदार्थको क्षणिक मानते हैं। उनके मतमें वास्तविक एकत्व नहीं है । 'अतः स एवायम्' यह वही है' इस प्रकारकी प्रतीतिको वे भ्रान्त ही मानते है, और इस एकत्व-प्रतीतिका कारण सदृश अपरापरके उत्पादको कहते है । वे ‘स एवायम' में 'सः' अंशको स्मरण और 'अयम्' अंशको प्रत्यक्ष इस तरह दो स्वतन्त्र ज्ञान मानकर प्रत्यभिज्ञानके अस्तित्वको हो स्वीकार नहीं करना चाहते । किन्तु यह बात जब निश्चित है कि प्रत्यक्ष केवल वर्तमानको विषय करता है और स्मरण केवल अतीतको; तब इन दोनों सीमित और नियत विषयवाले ज्ञानोंके द्वारा अतीत और वर्तमान दो पर्यायोंमें रहनेवाला एकत्व कैसे जाना जा सकता है ? 'यह वही है' इस प्रकारके एकत्वका अपलाप करनेपर बद्धको ही मोक्ष, हत्यारेको ही सजा, कर्ज देने वालेको ही उसकी दी हुई रकमकी वसूली आदि सभी जगतके व्यवहार उच्छिन्न हो जायगे। प्रत्यक्ष और स्मरणके बाद होनेवाले 'यह वही है' इस ज्ञानको यदि विकल्प कोटिमें डाला जाता है तो उसे ही प्रत्यभिज्ञान माननेमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । किन्तु यह विकल्प अविसंवादी होनेसे स्वतन्त्र प्रमाण होगा। प्रत्यभिज्ञानका लोप १. '...तस्मात् स एवायमिति प्रत्ययद्वयमेतत् ।' -प्रमाणवातिकाल० ५० ५१ । 'स इत्यनेन पूर्वकालसम्बन्धी स्वभावो विषयोक्रियते, अर्यामत्यनेन च वर्तमानकालसम्बन्धी। अनयोश्च भेदो न कश्चिदभेदः...' -प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० ७८ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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