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जैनदर्शन
करनेपर अनुमानकी प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती । जिस व्यक्तिने पहले अग्नि और धूमके कार्यकारणभावका ग्रहण किया है, वही व्यक्ति जब पूर्वधूमके सदृश अन्य धुआँको देखता है, तभी गृहीत कार्यकारणभावका स्मरण होनेपर अनुमान कर पाता है । यहाँ एकत्व और सादृश्य दोनों प्रत्यभिज्ञानोंकी आवश्यकता है, क्योंकि भिन्न व्यक्तिको विलक्षण पदार्थके देखने पर अनुमान नहीं हो सकता ।
बौद्ध जिस एकत्वप्रतीतिके निराकरणके लिए अनुमान करते है और जिस एकात्माको प्रतीतिके हटानेको नैरात्म्यभावना भाते हैं, यदि उस प्रतीतिका अस्तित्व ही नही है, तो क्षणिकत्वका अनुमान किस लिए किया जाता है ? और नैरात्म्य भावनाका उपयोग हो क्या है ? 'जिस पदार्थको देखा है, उसी पदार्थको मैं प्राप्त कर रहा हूँ' इस प्रकारके एकत्वरूप अविसंवादके बिना प्रत्यक्ष में प्रमाणताका सर्मथन कैसे किया जा सकता है ? यदि आत्मैकत्वकी प्रतीति होती ही नहीं हैं, तो तन्निमित्तक रागादिरूप संसार कहाँसे उत्पन्न होगा ? कटकर फिर ऊँगे हुए नख और केशोंमें 'ये वही नख केशादि है' इस प्रकारकी एकत्वप्रतीति सादृश्यमूलक होनेसे भले ही भ्रान्त हो, परन्तु 'यह वही घड़ा है' इत्यादि द्रव्यमूलक एकत्वप्रतीतिको भ्रान्त नहीं कहा जा सकता ।
प्रत्यभिज्ञानका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव :
मीमांसक' एकत्वप्रतीतिकी सत्ता मानकर भी उसे इन्द्रियोंके साथ अन्वय-व्यतिरेक रखनेके कारण प्रत्यक्ष प्रमाणमें ही अन्तर्भूत करते हैं । उनका कहना है कि स्मरणके बाद या स्मरणके पहले, जो भी ज्ञान . इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्धसे उत्पन्न होता है, वह सब प्रत्यक्ष है । स्मृति
१. 'तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धात् प्रागूध्वं चापि यत्स्मृतेः । विज्ञानं जायते सवं प्रत्यक्षमिति गम्यताम् ॥'
- मी० श्लो० सू० ४ श्लो० २२७ ।