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जैनदर्शन
देवने ही सर्वप्रथम बाँधी है और यह आगेके समस्त जैनाचार्यों द्वारा 'स्वीकृत रही ।
चर्वाकके परोक्षप्रमाण न माननेकी आलोचना :
चार्वाक प्रत्यक्ष प्रमाणसे भिन्न किसी अन्य परोक्ष प्रमाणकी सत्ता नहीं मानता । प्रमाणका लक्षण अविसंवाद करके उसने यह बताया है कि इन्द्रियप्रत्यक्ष के सिवाय अन्य ज्ञान सर्वथा अविसंवादी नहीं होते । अनुमानादि प्रमाण बहुत कुछ संभावनापर चलते है और ऐसा कहनेका कारण यह है कि देश, काल और आकार के भेदसे प्रत्येक पदार्थकी अनन्त शक्तियाँ और अभिव्यक्तियाँ होती है । उनमें अव्यभिचारी अविनाभावका ढूँढ़ लेना अत्यन्त कठिन हैं । जो आँवले यहाँ कषायरसवाले देखे जाते हैं, वे देशान्तर और कालान्तर में द्रव्यान्तरका सम्बन्ध होने पर मीठे रसवाले भी हो सकते हैं । कहीं-कहीं धूम सौंपकी वामीसे निकलता हुआ देखा जाता । अतः अनुमानका शत-प्रतिशत अविसंवादी होना असम्भव बात है । यही बात स्मरणादि प्रमाणोंके सम्बन्धमें है ।
परन्तु अनुमान प्रमाणके माने बिना प्रमाण और प्रमाणाभासका विवेक भी नहीं किया जा सकता । अविसंवादके आधारपर अमुक ज्ञानोंमें प्रमाणताको व्यवस्था करना और अमुक ज्ञानोंको अविसंवादके अभाव में अप्रमाण कहना अनुमान ही तो है । दूसरेकी बुद्धिका ज्ञान अनुमानके बिना नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धिका इन्द्रियोंके द्वारा प्रत्यक्ष असम्भव है । वह तो व्यापार, वचनप्रयोग आदि कार्यको देखकर हो अनुमित होती है । जिन कार्यकारणभावों या अविनाभावोंका हम निर्णय न कर सकें अथवा जिनमें व्यभिचार देखा जाय उनसे होने वाला अनुमान भले
१. प्रमाणेतर सामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ॥
- धर्मकीर्तिः ( प्रमाणमी० पृ० ८ ) ।