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________________ स्मरणप्रमाणमीमांसा २९५ ही भ्रान्त हो जाय, पर अव्यभिचारी कार्य-कारणभाव आदिके आधारसे होनेवाला अनुमान अपनी सीमामें विसंवादी नहीं हो सकता। परलोक आदिके निषेधके लिए भी चार्वाकको अनुमानको ही शरण लेनी पड़ती है । वामीसे निकलने वाली भाफ और अग्निसे उत्पन्न होनेवाले धुआंमें विवेक नहीं कर सकना तो प्रमाताका अपराध है, अनुमानका नहीं। यदि सीमित क्षेत्रमें पदार्थोके सुनिश्चित कार्य-कारणभाव न बैठाये जा सकें, तो जगतका समस्त व्यवहार ही नष्ट हो जायगा। यह ठीक है कि जो अनुमान आदि विसंवादी निकल जाँय उन्हें अनुमानाभास कहा जा सकता है, पर इससे निर्दष्ट अविनाभावके आधारसे होनेवाला अनुमान कभी मिथ्या नहीं हो सकता। यह तो प्रमाताको कुशलतापर निर्भर करता है कि वह पदार्थोंके कितने और कैसे सूक्ष्म या स्थूल कार्य-कारणभावको जानता है । आप्तके वाक्यको प्रमाणता हमें व्यवहारके लिए मानना ही पड़ती है, अन्यथा समस्त सांसारिक व्यवहार छिन्न-विच्छिन्न हो जायेंगे। मनुष्यके ज्ञानकी कोई सीमा नहीं है, अतः अपनी मर्यादामें परोक्षज्ञान भी अविसंवादी होनेसे प्रमाण ही हैं । यह खुला रास्ता है कि जो ज्ञान जिस अंशमें विसंवादी हों उन्हें उस अंशमें अप्रमाण माना जाय। १. स्मरण: 'संस्कारका उद्बोध होनेपर स्मरण उत्पन्न होता है। यह अतीतकालीन पदार्थको विषय करता है। और इसमें 'तत्' शब्दका उल्लेख अवश्य होता है । यद्यपि स्मरणका विषयभूत पदार्थ सामने नहीं है, फिर भी वह हमारे पूर्व अनुभवका विषय तो था ही, और उस अनुभवका दृढ़ संस्कार हमें सादृश्य आदि अनेक निमित्तोंसे उस पदार्थको मनमें झलका देता है । इस स्मरणकी बदौलत ही जगतके समस्त लेन-देन आदि व्यव १. 'संस्कारोबोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः ।'-परीक्षामुख ३।३।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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