________________
परोक्षप्रमाणमीमांसा , २९३ आदि ज्ञानोंको शब्दयोजनाके पहले सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और शब्दयोजना होने पर उन्हीं ज्ञानोंको श्रुत कहा है। इस तरह सामान्यरूपसे मतिज्ञानको परोक्ष की सीमामें आनेपर भी उसके एक अंश-मतिको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहनेकी और शेष-स्मृति आदिक ज्ञानोंको परोक्ष कहनेकी भेदक रेखा क्या हो सकती है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है । इसका समाधान परोक्षके लक्षणसे ही हो जाता है। अविशद अर्थात् अस्पष्ट ज्ञानको परोक्ष कहते है । विशदताका अर्थ है, ज्ञानान्तरनिरपेक्षता। जो ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें किसी दूसरे ज्ञानकी अपेक्षा रखता हो अर्थात् जिसमें ज्ञानान्तरका व्यवधान हो, वह ज्ञान अविशद है । पाँच इन्द्रिय और मनके व्यापारसे उत्पन्न होनेवाले इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष चूंकि केवल इन्द्रियव्यापारसे उत्पन्न होते है, अन्य किसी ज्ञानान्तरकी अपेक्षा नहीं रखते, इसलिए अंशतः विशद होनेसे प्रत्यक्ष है, जबकि स्मरण अपनी उत्पत्तिमें पूर्वानुभवको, प्रत्यभिज्ञान अपनी उत्पत्तिमें स्मरण और प्रत्यक्षकी, तर्क अपनी उत्पत्तिमे स्मरण, प्रत्यक्ष और प्रत्यभिज्ञानको, अनुमान अपनी उत्पत्तिमे लिङ्गदर्शन और व्याप्तिस्मरणकी तथा श्रुत अपनी उत्पतिमें शब्दश्रवण और संकेतस्मरणकी अपेक्षा रखते है, अतः ये सब ज्ञानान्तरसापेक्ष होनेके कारण अविशद है और परोक्ष है।।
यद्यपि ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें पूर्व-पूर्व प्रतीतिकी अपेक्षा रखते है तथापि ये ज्ञान नवीन-नवीन इन्द्रियव्यापारसे उत्पन्न होते है और एक ही पदार्थको विशेष अवस्थाओंको विषय करनेवाले है, अतः किसी भिन्नविषयक ज्ञानसे व्यवहित नहीं होनेके कारण सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ही है। एक ही ज्ञान दूसरे-दूसरे इन्द्रियव्यापारोंसे अवग्रह आदि अतिशयोंको प्राप्त करता हुआ अनुभवमें आता है; अतः ज्ञानान्तरका अव्यवधान यहाँ सिद्ध हो जाता है।
परोक्षज्ञान पाँच प्रकारका होता है-स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । परोक्ष प्रमाणकी इस तरह सुनिश्चित सीमा अकलंक