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________________ २९२ जैनदर्शन प्रश्नोंको अव्याकृत-न कहने लायक कहा था। उन्होंने इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नोंमें मौन ही रखा, जब कि महावीरने इन सभी प्रश्नोंके उत्तर अनेकान्तदृष्टिसे दिये और शिष्योंकी जिज्ञासाका समाधान किया। तात्पर्य यह हैं कि बुद्ध केवल धर्मज्ञ थे और महावीर सर्वज्ञ । यही कारण है कि बौद्ध ग्रन्थोंमें मुख्य सर्वज्ञता सिद्ध करनेका जोरदार प्रयत्न नहीं देखा जाता, जब कि जैन ग्रन्थोंमें प्रारम्भसे ही इसका प्रबल समर्थन मिलता है। आत्माको ज्ञानस्वभाव माननेके बाद निरावरण दशामें अनन्त ज्ञान या सर्वज्ञताका प्रकट होना स्वाभाविक ही है। सर्वज्ञताका व्यावहारिक रूप कुछ भी हो, पर शानकी शुद्धता और परिपूर्णता असम्भव नहीं है। परोक्ष प्रमाण : आगमोंमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको परोक्ष और स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधको मतिज्ञानका पर्याय कहा ही था', अतः आगममें सामान्यरूपसे स्मृति, संज्ञा ( प्रत्यभिज्ञान ) चिन्ता ( तर्क ), अभिनिबोध (अनुमान ) और श्रुत ( आगम ) इन्हें परोक्ष माननेका स्पष्ट मार्ग निर्दिष्ट था ही, केवल मति (इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाला प्रत्यक्ष ) को परोक्ष मानने पर लोकविरोधका प्रसंग था, जिसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मानकर हल कर लिया गया था। अकलंकदेवके इस सम्बन्धमें दो मत उपलब्ध होते हैं । वे राजवातिको अनुमान आदि ज्ञानोंको स्वप्रतिपत्तिके समय अनक्षरश्रुत और परप्रतिपत्तिकालमें अक्षरश्रुत कहते हैं। उनने लघीयस्त्रय ( कारिका ६७ ) में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता और अभिनिबोधको मनोमति बताया है और कारिका ( १० ) में मति; स्मृति १. 'आधे परोक्षम् ।' -त. सू० ११० । २. 'तत्वार्थसूत्र' १११३ । ३. 'शानमाचं मतिः संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधकम् । प्राङ्नामयोजाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् ॥१०॥'
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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