________________
प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा
२९१ है' इत्यादि अनुमानप्रयोगोंमें 'आत्मा' को ही धर्मी बनाया जाता है, अतः उक्त दोष नहीं आते।
प्रश्न-सर्वज्ञके साधक और बाधक दोनों प्रकारके प्रमाण नहीं मिलते, अतः संशय हो जाना चाहिए ?
उत्तर-सर्वज्ञके साधक प्रमाण ऊपर बताये जा चुके हैं और बाधक प्रमाणोंका निराकरण भी किया जा चका है, अतः सन्देहकी बात बेबुनियाद है । त्रिकाल और त्रिलोकमें सर्वज्ञका अभाव सर्वज्ञ बने बिना किया ही नहीं जा सकता। जब तक हम त्रिकाल त्रिलोकवर्ती समस्त पुरुषोंकी असर्वज्ञके रूपमें जानकारी नहीं कर लेते तब तक संसारको सदा सर्वत्र सर्वज्ञ शून्य कैसे कह सकते है ? और यदि ऐसी जानकारी किसीको संभव है; तो वही व्यक्ति सर्वज्ञ सिद्ध हो जाता है। ____ भगवान् महावीरके समयमें स्वयं उनकी प्रसिद्धि सर्वज्ञके रूपमें थी। उनके शिष्य उन्हें सोते, जागते, हर हालतमें ज्ञान-दर्शनवाला सर्वज्ञ कहते थे। पाली पिटकोंमें उनकी सर्वज्ञताकी परीक्षा के एक दो प्रकरण हैं, जिनमें सर्वज्ञताका एक प्रकारसे उपहास ही किया है। 'न्यायबिन्दु नामक ग्रन्थमें धर्मकीतिने दृष्टान्ताभासोंके उदाहरणमें ऋषभ और वर्धमानको सर्वज्ञताका उल्लेख किया है । इस तरह प्रसिद्धि और युक्ति दोनों क्षेत्रोंमें बौद्ध ग्रन्थ वर्धमानकी सर्वज्ञताके एक तरहसे विरोधी ही रहे हैं। इसका कारण यही मालूम होता है कि बुद्धने स्वयं अपनेको केवल चार आर्यसत्योंका ज्ञाता ही बताया था, और स्वयं अपनेको सर्वज्ञ कहनेसे इनकार किया था। वे केवल अपनेको धर्मज्ञ या मार्गज्ञ मानते थे और इसीलिए उन्होंने आत्मा, मरणोत्तर जीवन और लोककी सान्तता और अनन्तता आदिके
१. 'यः सर्वशः आप्तो वा स ज्योतिर्शानादिकमुपदिष्टवान्। तद्यथा ऋषभवर्धमाना
दिरिति । तत्रासर्वशतानाप्ततयोः साध्यधर्मयोः सन्दिग्धो यतिरेकः।' न्यायबि० ३११३१ ।