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जैनदर्शन ज्ञानमय है तब उसके विकासमें क्या बाधा है ? जो आवरणकी बाधा है, वह साधनासे उसी तरह हट सकती है जैसे अग्निमें तपानेसे सोनेका मैल ।
प्रश्न-सर्वज्ञ जब रागी आत्माके रागका या दुःखका साक्षात्कार करता है तब वह स्वयं रागी और दुःखी हो जायगा ? |
उत्तर-दुखः या रागको जान लेने मात्रसे कोई दुःखी या रागी नहीं होता। रागी तो, आत्मा जब स्वयं राग रूपसे परिणमन करे, तभी होता है। क्या कोई श्रोत्रिय ब्राह्मण मदिराके रसका ज्ञान रखने मात्रसे मद्यपायी कहा जा सकता है ? रागके कारण मोहनीय आदि कर्म मर्वज्ञसे अत्यन्त उच्छिन्न हो गये है, वह पूर्ण वीतगग है, अतः परके राग या दुःख के जान लेने मात्रसे उसमे राग या दुःखरूप परिणति नहीं हो सकती।
प्रश्न-सर्वज्ञ अशुचि पदार्थोको जानता है तो उसे उसके रसास्वादनका दोप लगना चाहिए ?
उत्तर-ज्ञान दूसरी वस्तु है और रसका आस्वादन दूसरी वस्तु है। आस्वादन रसना इन्द्रियके द्वारा आनेवाला स्वाद है जो इन्द्रियातीत ज्ञानवाले सर्वज्ञके होता ही नहीं है । उसका ज्ञान तो अतीन्द्रिय है । फिर जान लेने मात्रसे रसास्वादनका दोप नहीं हो सकता; क्योंकि दोप तो तब लगता है जव स्वयं उसमें लिप्त हुआ जाय और तद्प परिणति की जाय, जो सर्वज्ञ वीतरागीमें होती नहीं।
प्रश्न-सर्वज्ञको धर्मी बनाकर दिये जानेवाले कोई भी हेतु यदि भावधर्म यानी भावात्मक सर्वज्ञके धर्म है; तो असिद्ध हो जाते है ? यदि अभावात्मक सर्वज्ञके धर्म है; तो विरुद्ध हो जायगे और यदि उभयात्मक सर्वज्ञके धर्म है; तो अनैकान्तिक हो जायेंगे ? ___ उत्तर-'सर्वज्ञ' को धर्मी नहीं बनाते है, किन्तु धर्मी 'कश्चिदात्मा' 'कोई आत्मा' है, जो प्रसिद्ध है । 'किसी आत्मामें सर्वज्ञता होनी चाहिए, क्योंकि पूर्णज्ञान आत्माका स्वभाव है और प्रतिबन्धक कारण हट सकते