________________
प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा
२८७ प्रश्न-अर्हन्त सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वे वक्ता है और पुरुष हैं । जैसे कोई गलीमें घूमनेवाला आवारा आदमी।
उत्तर--वक्तृत्व और सर्वज्ञत्वका कोई विरोध नहीं है। वक्ता भी हो सकता है और सर्वज्ञ भी । यदि ज्ञानके विकासमें वचनोंका ह्रास देखा जाता तो उसके अत्यन्त विकासमें वचनोंका अत्यन्त ह्रास होता, पर देखा तो उससे उलटा ही आता है। ज्यों-ज्यों ज्ञानको वृद्धि होती है त्यों-त्यों वचनोंमें प्रकर्षता ही आती है।
प्रश्न-वक्तृत्वका सम्बन्ध विवक्षासे है, अतः इच्छारहित निर्मोही सर्वज्ञमें वचनोंकी संभावना कैसे है ?
उत्तर--विवक्षाका वक्तृत्वसे कोई अविनाभाव नहीं है। मन्दबुद्धि शास्त्रकी विवक्षा होनेपर भी शास्त्रका व्याख्यान नहीं कर पाता। सुषुप्त और मच्छित आदि अवस्थाओंमें विवक्षा न रहनेपर भी वचनोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है। अतः विवक्षा और वचनोंमें कोई अविनाभाव नहीं बैठाया जा सकता। चैतन्य और इन्द्रियोंकी पटुता ही वचनप्रवृत्तिमें कारण है और इनका सर्वज्ञत्वसे कोई विरोध नहीं है। अथवा, वचनोंमें विवक्षाको कारण मान भी लिया जा; पर सत्य और हितकारक वचनोंको उत्पन्न करनेवाली विवक्षा सदोप कैसे हो सकती है ? फिर, तीर्थकरके तो पूर्व पुण्यानुभावसे बँधी हुई तीर्थकर प्रकृतिके उदयसे वचनोंकी प्रवृत्ति होती है। जगतके कल्याणके लिए उनकी पुण्यदेशना होती है। ____ इसी तरह निर्दोप वीतरागी पुरुषत्वका सर्वज्ञतासे कोई विरोध नहीं है । पुरुष भी हो जाय और सर्वज्ञ भी। यदि इस प्रकारके व्यभिचारी अर्थात् अविनाभावशून्य हेतुओंसे साध्यको सिद्धि की जाती है; तो इन्हीं हेतुओंसे जैमिनिमें वेदज्ञताका भी अभाव सिद्ध किया जा सकेगा।
प्रश्न- हमें किसी भी प्रमाणसे सर्वज्ञ उपलब्ध नहीं होता, अतः अनुपलम्भ होनेसे उसका अभाव ही मानना चाहिए ?
उत्तर--पूर्वोक्त अनुमानोंसे जब सर्वज्ञ सिद्ध हो जाता है तब