SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ जैनदर्शन अनुपलम्भ कसे कहा जा सकता है ? यह अनुपलम्भ आपको है या सबको ? 'हमारे चित्तमें जो विचार है' उनका अनुपलम्भ आपको है, पर इससे हमारे चित्तके विचारोंका अभाव तो नहीं हो जायगा । अतः स्वोपलम्भ अनैकान्तिक है । दुनियाँमे हमारे द्वारा अनुपलब्ध असंख्य पदार्थोंका अस्तित्व है ही । 'सबको सर्वज्ञका अनुपलम्भ है' यह बात तो सबके ज्ञानोंको जानने वाला सर्वज्ञ ही कह सकता है, असर्वज्ञ नहीं। अतः सर्वानुपलम्भ असिद्ध ही है। प्रश्न-ज्ञानमें तारतम्य देखकर कहीं उसके अत्यन्त प्रकर्षकी सम्भावना करके जो सर्वज्ञ सिद्ध किया जाता है उसमें प्रकर्षताको एक सीमा होती है । कोई ऊँचा कूदनेवाला व्यक्ति अभ्याससे तो दस हाथ हो ऊंचा कूँद सकता है, वह चिर अभ्यासके बाद भी एक मील ऊँचा तो नहीं कूद सकता ? __उत्तर-कूदनेका सम्बन्ध शरीरको शक्तिसे है, अतः उसका जितना प्रकर्ष संभव है, उतना ही होगा। परन्तु ज्ञानको शक्ति तो अनन्त है। वह ज्ञानावरणसे आवृत होनेके कारण अपने पूर्णरूपमे विकसित नहीं हो पा रही है। ध्यानादि साधनाओंसे उस आगन्तुक आवरणका जैसे-जैसे क्षय किया जाता है वैसे-वैसे ज्ञानकी स्वरूपज्योति उसी तरह प्रकाशमान होने लगती है जैसा कि मेघोंके हटने पर सूर्यका प्रकाश । अपने अनन्तशक्तिवाले ज्ञान गुणके विकासको परमप्रकर्प अवस्था ही सर्वज्ञता है । आत्माके गुण जो कर्मवासनाओसे आवृत है, वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप साधनाओंसे प्रकट होते है । जैसे कि किसी इष्टजनको भावना करनेसे उसका साक्षात् स्पष्ट दर्शन होता है। प्रश्न-यदि सर्वज्ञके ज्ञानमें अनादि और अनन्त झलकते है तो उनकी अनादिता और अनन्तता नहीं रह सकती ? उत्तर-जो पदार्थ जैसे है वे वैसे ही ज्ञानमें प्रतिभासित होते है। यदि आकाशकी क्षेत्रकृत और कालको समयकृत अनन्तता है तो वह उसी
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy