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जैनदर्शन र्थोंमें संवादक और स्पष्ट होता है। जैसे प्रश्नविद्या या ईक्षणिकादिविद्या' अतीन्द्रिय पदार्थोंका स्पष्ट भान करा देती है; उसी तरह अतीन्द्रियज्ञान भी स्पष्ट प्रतिभासक होता है। ____आचार्य वीरसेन स्वामीने जयघवला टीकामें केवलज्ञानकी सिद्धिके लिए एक नवीन ही युक्ति दी है। वे लिखते है कि केवलज्ञान ही आत्मा का स्वभाव है । यही केवलज्ञान ज्ञानावरणकर्मसे आवृत होता है और आवरणके क्षयोपशमके अनुसार मतिज्ञान आदिके रूपमें प्रकट होता है । तो जब हम मतिज्ञान आदिका स्वसंवेदन करते है तब उस रूपसे अंशी केवलज्ञानका भी अंशतः स्वसंवेदन हो जाता है। जैसे पर्वतके एक अंशको देखने पर भी पूर्ण पर्वतका व्यवहारतः प्रत्यक्ष माना जाता है उसी तरह मतिज्ञानादि अवयवोंको देखकर अवयवीरूप केवलज्ञान यानी ज्ञानसामान्यका प्रत्यक्ष भी स्वसंवेदनसे हो जाता है। यहाँ आचार्यने केवलज्ञानको ज्ञानसामान्यरूप माना है और उसकी सिद्धि स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे की है ।
अकलंकदेवने अनेक साधक प्रमाणोंको बताकर जिस एक महत्त्वपूर्ण हेतुका प्रयोग किया है वह है-'सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्व' अर्थात् बाधक प्रमाणोंकी असंभवताका पूर्ण निश्चय होना। किसी भी वस्तुकी सत्ता सिद्ध करनेके लिये यही 'बाधकाऽभाव' स्वयं एक बलवान् साधक प्रमाण हो सकता है । जैसे 'मैं सुखी हूँ' यहाँ सुखका साधक प्रमाण यही हो सकता है कि मेरे सुखी होनेमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है। चूंकि सर्वज्ञकी सत्तामें भी कोई बाधक प्रमाण नहीं है। अतः उसको निधि सत्ता होनी चाहिये। ___ इस हेतुके समर्थनमें उन्होंने प्रतिवादियोंके द्वारा कल्पित बाधकोंका निराकरण इस प्रकार किया है१. देखो, न्यायविनिश्चय श्लोक ४०७ । २. "अस्ति सर्वशः सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्वात् मुखादिवत् ।"
-सिद्धिवि० टी० लि. पृ० ४२१।
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